SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 110
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण निरुक्त ( १४-६ ) में लिखा है कि कर्म छोड़नेवाले तपस्वियों और ज्ञानयुक्त कर्म करनेवाले कर्मयोगियोंको एक ही देवयान गति प्राप्त होती है। ___ अब धर्मसूत्रोंको लीजिये। बौधायन और आपस्तम्बमें स्पष्ट कहा है कि गृहस्थाश्रम ही मुख्य है और उसीसे अमृतत्व मिलता है। बौधायन धर्मसूत्रमें (२-६-११-३३, ३४ ) कहा है कि जन्मसे ही ब्राह्मण अपनी पीठ पर तीन ऋण लाता है। इन ऋणोंको चुकानेके लिये यज्ञ याग आदि पूर्वक गृहस्थाश्रमका पालन करनेवाला मनुष्य ब्रह्मलोकको पहुँचता है और ब्रह्मचर्य या संन्यासकी प्रशंसा करनेवाले धूलमें मिल जाते हैं। आपस्तम्ब सूत्र (6-२४-८) में भी ऐसा हो कथन है । आपस्तम्ब सूत्र इस बातका समर्थक नहीं है कि कोई एक बार गृहस्थाश्रममें प्रवेश करके उसे छोड़कर अन्य आश्रममें प्रवेश करे। इसका यह मतलब नहीं है कि इन दोनों धर्मसूत्रोंमें संन्यास आश्रमका वर्णन नहीं है, किन्तु उसका वर्णन करके भी गृहस्थाश्रमको ही विशेष महत्व दिया गया है। यही बात हम स्मृतियोंमें देखते हैं । मनुस्मृतिके छठे अध्यायमें कहा है कि मनुष्य ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ्य और वानप्रस्थ आश्रमोंसे चढ़ता चढ़ता कर्मत्यागरूप चौथा आश्रम स्वीकार करे। परन्तु संन्यास आश्रमका निरूपण समाप्त होने पर मनु ने प्रथम यह प्रस्तावना की कि 'यह यतियोंका अर्थात् सन्यासियोंका धर्म बतलाया अब वेदसंन्यासियांका कर्मयोग कहते हैं। और फिर यह कहा है कि अन्य आश्रमोंकी अपेक्षा गृहस्थाश्रम ही श्रेष्ठ है। आगे बारहवें अध्यायमें निष्काम गार्हस्थ्यवृत्तिको ही वैदिक कर्मयोग नाम देकर कहा है कि यह मार्ग भी चतुर्थ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy