________________
जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका उक्त कथनसे भी स्पष्ट है कि वैदिक धर्ममें संन्यासमार्गका प्रवेश उपनिषत्कालसे हुआ। ___यद्यपि बहुत प्राचीन कालसे वैदिक आर्यों में ब्रह्मचारी और गृहस्थोंके अस्तित्वके चिह्न मिलते हैं और वेदोंमें यति और मुनियोंका भी निर्देश है किन्तु पं० हरदत्त शर्माके मन्तव्यानुसार श्वेताश्वतर उपनिषदसे पहले, जिसमें 'अत्याश्रमिन्' शब्द
आया है-आश्रम परिपाटीकी स्थापना नहीं हुई थी। प्राचीन उपनिषदोंमें केवल ब्रह्मचारी. गृहस्थ और यति या मुनि इन तीन आश्रमोंके प्रमाण मिलते हैं। छान्दो० उप० (८-१५-१) के अनुसार गृहस्थ दशामें भी ब्रह्मलोकको प्राप्त किया जा सकता है। - प्राचीन उपनिषदोंमें वानप्रस्थ और संन्यास आश्रमोंमें कोई अन्तर प्रतीत नहीं होता। ब्राह्मण ग्रन्थोंमें यद्यपि संन्यासके प्रति कोई विरोधी भाव तो नहीं दर्शाया गया है किन्तु गृहस्थ जीवनको ही आदर्श-जीवन माना है । शतपथ ब्रा० ( १३, ४-१-१) में लिखा है-'एतद् वै जरामयं सत्रं यद् अग्निहोत्रम्' अर्थात् 'जब तक जिओ अग्निहोत्र करो।
तैत्ति० उप० (१-११-१ ) में लिखा है-'प्रजातन्तुं मा व्यवच्छेत्सीः' । अर्थात् सन्तानकी परम्पराको मत तोड़ो।
ईशावा. उ० में लिखा है-'कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेत् शतं समाः' । अर्थात् एक मनुष्यको अपने जीवन भर कर्म करते हुए सौ वर्ष तक जीनेकी इच्छा करनी चाहिये। यास्क ने अपने
१. पूना अोरियन्टल सिरीज़ नं० ६४ में पं० हरदत्त शर्माका एक विद्वत्ता पूर्ण निबन्ध 'ब्राह्मण संन्यासके इतिहास' पर प्रकाशित हुआ है। उन्हीं की खोजों के फलस्वरूप उक्त उद्धरण प्राप्त हो सके हैं ।-ले
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org