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जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका आश्रमके समान ही मोक्षप्रद है। इसी तरह याज्ञवल्क्यस्मृतिके तीसरे अध्यायमें यतिधर्मका निरूपण करनेके पश्चात् 'अथवा' पदका प्रयोग करके लिखा है कि ज्ञाननिष्ठ और सत्यवादी गृहस्थ भी ( बिना संन्यास ग्रहण किये ) मुक्ति पाता है। ___ महाभारतमें जब युधिष्ठिर महायुद्धके पश्चात् संन्यास लेना चाहते हैं तो भीमने उस समय संन्यासके विरुद्ध जो युक्तियाँ दी हैं वे दृष्टव्य हैं। भीम कहता है-शास्त्रमें लिखा है कि जब मनुष्य संकटमें हो या बूढ़ा हो गया हो, या शत्रुओंसे त्रस्त हो तो उसे संन्यास ले लेना चाहिये। अतः बुद्धिमान् मनुष्य संसारका त्याग नहीं करते और दृष्टिसम्पन्न मनुष्य इसे नियमका उल्लंघन मानते हैं। भाग्यहीन और नास्तिक लोगों ने ही संन्यास चलाया है। आदि । ___इन सब उद्धरणोंसे प्रकट है कि वैदिक धर्मने संन्यासको हृदयसे नहीं अपनाया। और इसका मुख्य कारण यही प्रतीत होता है कि वह मूलतः वैदिक धर्मका अंग नहीं था, किन्तु उन लोगोंका था जो वैदिक आर्योंके क्रियाकाण्डी जीवनसे भिन्न मार्गावलम्बी थे और जिन्हें वैदिक मार्गानुयायी नास्तिक कहते थे।
आत्मा, पुनर्जन्म, अरण्य, संन्यास, तप, और मुक्ति, ये सारे तत्त्व परस्परमें सम्बद्ध हैं। प्रात्मविद्याका एक छोर पुनर्जन्म है तो दूसरा छोर मुक्ति है, और संन्यास लेकर अरण्य में तप करना पुनर्जन्मसे मुक्तिका उपाय है। ये सब तत्त्व वैदिकेतर संस्कृतिसे वैदिक संस्कृतिमें प्रविष्ट हुए हैं। तभी तो विद्वानोंका कहना है कि 'अवैदिक तत्त्वोंका प्रभाव केवल देशमें विचारोंके विकासके लिये एक नये प्रकारके दृश्यसे परिचयमें ही
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