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जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका आस्था पूर्ण नहीं है । गीतामें भी यही बात लक्षित होती है। गीता (अ० २, श्लो०४२-४६ ) में लिखाहै-हे पार्थ! वेदोंके वाक्योंमें भूले हुए यह कहने वाले मूढ लोग कि इसके अतिरिक्त दूसरा कुछ नहीं है, बढ़ाकर कहा करते हैं कि अनेक प्रकारके यागादिकसे पुनर्जन्म रूप फल मिलता है और भोग तथा ऐश्वर्य मिलता है स्वर्गके पीछे पड़े हुए ये काम्य बुद्धि वाले लोग-उल्लिखित कथन की ओर ही उनके पन आकर्षित हो जानेसे भोग और ऐश्वर्यमें गर्क रहते हैं। इस कारण उनकी व्यवसायात्मक बुद्धि समाधि में स्थिर नहीं रहती। हे अर्जुन ! वेद त्रैगुण्यकी बातोंसे भरे पड़े हैं । इस लिए तू त्रिगुणोंसे अतीत, नित्य सत्वस्थ और सुख दुःख आदि द्वन्दोंसे अलिप्त हो, योग क्षेम आदि स्वार्थों में न पड़कर आत्मनिष्ठ हो। चारों ओर पानीकी बाढ़ आजानेपर कुएँका जितना प्रयोजन रह जाता है उतना ही प्रयोजन ज्ञान प्राप्त ब्राह्मण को कर्म काण्ड रूप वेदका रहता है।"
इस तरह वेदकी निन्दा करके भी आगे तीसरे अध्यायमें अन्न यज्ञ करनेका विधान किया गया है । लिखा है-परन्तु जो ( यज्ञ न करके ) केवल अपने लिये ही अन्न पकाते हैं वे पापी लोग पाप भक्षण करते हैं। प्राणी मात्रकी उत्पत्ति अन्नसे होती है, अन्न पर्जन्य-मेबसे उत्पन्न होता है, पर्जन्य यज्ञसे उत्पन्न होता है और यज्ञकी उत्पत्ति कर्मसे होती है। (अ० ३, श्लो० १३-१४ )।
किन्तु आगे (गी०, अ० ४, श्लो० ३३ ) पुनः लिखा हैद्रव्यमय यज्ञकी अपेक्षा ज्ञानमय यज्ञ श्रेष्ठ है। इस तरह वैदिक यज्ञोंके प्रति गीताका भाव उपनिषदों के अनुरूप होते हुए भी गीतामें ज्ञान यज्ञके साथ यज्ञको भी विधेय बतलाया है। अध्यात्मक ज्ञानका तो गीतामें संग्रह है ही। फिर भी उपनिषदोंसे गीता
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