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________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण १४९ टीकाकारोंने जो अपनी टीकात्रोंमें गीतामें संन्यास मार्गका प्रति पादन किया. उसे निवृत्तिमार्गी जैन धर्म और बौद्ध धर्मका प्रभाव मानते हैं । जैसा कि हम ऊपर लिख आये हैं गीताके निर्माणका मूल उद्देश्य क्षत्रियको अपने क्षत्रिय कर्म युद्धसे विरत न करके युद्धमें प्रवृत्त करना है। ऐसा ग्रन्थ मूलमें निवृत्तिमार्गी नहीं हो सकता। हाँ उसमें जो निवृत्ति मार्गकी चर्चा आई है वह सामयिक प्रभाव हो सकता है। क्षत्रियोंमें अर्थात गीता रचना जिस काल में हुई उस समय निवृत्तिमार्गका प्रभाव होना चाहिये । जिसे कम करनेके उद्देश्यसे ही गीताकी रचनाकी गई जान पड़ती है। गीताके अनुयायिओंकी ऐसी साम्प्रदायिक मान्यता है कि उपनिषदोंका दोहन करके स्वयं गोपाल नन्दन श्री कृष्णने गीताकी रचना की है। किन्तु प्राचीन उपनिषदोंमें मान्य छा० उ० में देवकी पुत्र कृष्णका निर्देश आता है, जिससे यह प्रमाणित होता है कि उपनिषदोंकी रचना श्री कृष्णके बाद की है। अतः उपनिषदोंका दोहन करके गीताको रचनेका श्रेय श्री कृष्णको तो नहीं दिया जा सकता। किन्तु गीताके अवलोकनसे यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि उसकी रचना उपनिषदोंके आधारपर ही किसी ने की है। यह पहले लिख आये हैं कि उपनिषदों' का रुख वेदोंके प्रति १ मुण्डकोपनिषदमें ( १-२-१७ ) कहा हैइष्टापूर्त मन्यमाना वरिष्ठ न्यायच्छे यो वेदयन्ते प्रमूढाः । नाकस्य पृष्ठे ते सुकृतेऽनुभूत्वेमं लोकं हीनतरं वा विशन्ति ॥ 'इष्टापूर्त ही श्रेष्ठ है, यह माननेवाले मूढ लोग स्वर्गमें पुण्यका उपयोग करके फिर नीचेके मनुष्य लोकमें आते हैं।' ईशावास्य (६-१२) और कठ उपनिषदों ( २-५ ) में भी इसी ढंगकी निन्दा की गई है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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