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________________ १५४ मानवमात्र मानते थे- अपनी भगवत्ताके रहस्यको अत्यन्त गुह्य बताना उचित भी था, नहीं तो अर्जुन सोचता कि श्रीकृष्ण महाराज तो आज 'दूनकी हांक' रहे हैं। और यदि श्रीकृष्ण ने अपनेको सर्वशक्तिसम्पन्न भगवान न बतलाया होता तो अर्जुनका तथोक्त व्यामोह शायद ही दूर होता; क्योंकि गीताके अध्ययनसे प्रकट होता है कि अर्जुनको श्रीकृष्णकी सर्वशक्तिमत्ताने ही विशेष प्रभावित किया । जै० ० सा० इ० पूर्व पीठिका मानवतनधारी क्षत्रिय व्यक्तिकी ऐसी सर्वशक्तिमत्ताका वर्णन गीताके पूर्वके वैदिक साहित्य में तो है ही नहीं, जैन बौद्ध आदि जिन धर्मोको भौतिक और स्वर्गीय देवताओंके स्थानमें मानवकी प्रतिष्ठा करने का श्रेय प्राप्त है, उनमें भी महावीर बुद्ध आदि मानवीय परमेश्वरोंकी शक्तिमत्ताका ऐसा रूप नहीं पाया जाता । गीताका मानवतनधारी क्षत्रिय श्रीकृष्ण क्या नहीं है, वह स्वयं वेद है, जगतका कर्ता हर्ता है, पुण्य पापसे मोचन करनेवाला है, सर्व यज्ञोंका भोक्ता है, और सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वह पत्र पुष्प से ही सन्तुष्ट हो जाता है, उसके लिये यज्ञ जैसा बहुव्यय साध्य प्रयोग करनेकी आवश्यकता नहीं है । दुराचारी पातकी भी उसकी भक्तिसे पार हो जाते हैं, वैदिक युगमें जिन वैश्य, स्त्री और शूद्रोंको वेद श्रवण करनेका भी अधिकार नहीं था, वे भी कृष्ण भक्तिसे उत्तम गति प्राप्त करते हैं । प्राचीन वैदिक धर्मसे गीताके इस धर्म में कितना अन्तर है ? क्योंकि वैदिक धर्मका प्राचीन स्वरूप न तो भक्ति प्रधान, न तो ज्ञान प्रधान और न योग प्रधान ही था किन्तु वह यज्ञमय था । वैदिक आख्यानके अनुसार प्राचीनकाल में विश्वामित्र नामके Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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