SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 178
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण १५३ फल अथवा जल अर्पण करता है, मैं उस प्रयतात्माकी भक्ति भेटको ग्रहण करता हूं ।। २६ ।। हे कौन्तेय ! तू जो कुछ करता है, जोखाता है, होम हवन करता है, जो दान करता है और जो तप करता है, वह सब मुझे अर्पण कर ॥ २७ ॥ इस प्रकार करनेसे कोंके शुभ-अशुभ फलरूप बन्धनोंसे तू मुक्त रहेगा और संन्यास करनेके इस योगसे मुक्तात्मा होकर मुक्त हो जायेगा तथा मुक्तमें मिल जायगा ।। २८ ।। मैं सबको एक-सा हूं। न मुझे कोई द्वेष्य अर्थात् अप्रिय है और न कोई प्रिय । जो भक्तिसे मेरा भजन करते हैं वे मुझमें हैं और मैं भी उनमें हूं ।। २६ ॥ बड़ा दुराचारी ही क्यों न हो, यदि वह मुझे अनन्य भावसे भजता है तो उसे साधु ही समझना चाहिये क्योंकि उसकी बुद्धि ठीक रहती है ।। 37 ॥ वह जल्दी धर्मात्मा हो जाता है और सदा शान्ति पाता है। हे कौन्तेय ! तू खूब समझ ले, मेरा भक्त नष्ट नहीं होता ॥ ३१ ॥ क्योंकि हे पार्थ! मेरा आश्रय पाकर स्त्रियाँ, वैश्य, और शूद्र जो पापयोनि हों वे भी परम गति पाते हैं ॥ ३२ ।। फिर मेरे भक्त ब्राह्मणों और राजर्षियों-क्षत्रियोंकी तो बात ही क्या है ॥ ३३ ॥ इस अध्यायसे जो बातें प्रकाशमें आती हैं वे इस प्रकार हैं १ प्रथम तो भगवानने ( जो साम्प्रदायिक मान्यतानुसार श्री कृष्ण स्वयं हैं) इस अध्यायमें वर्णित अपने स्वरूपको अत्यन्त गोप्य बतलाया है। यदि थोड़ी देरके लिये यह मान लिया जाये कि इस अध्यायमें वर्णित बातें स्वयं श्रीकृष्णने कहीं हैं तो कहना होगा कि अपनी भगवत्ता के रहस्यका प्रथम उद्घाटन स्वयं उन्होंने ही किया, अन्य लोग तो उन्हें मनुष्य मानकर उनकी अवहेलना ही करते थे। ऐसी स्थितिमें जबकि अन्य लोग उन्हें Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy