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________________ १५२ ___ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका श्रद्धा न रखनेवाले पुरुष मुझे नहीं पाते, वे मृत्यु युक्त संसारके मार्गमें भटकते रहते हैं ॥......मैं सब भूतोंका महान् ईश्वर हूं किन्तु मूढ़ लोग मेरे स्वरूपको नहीं जानते। वे मुझे मानव तनुधारी समझकर मेरी अवहेलना करते हैं ॥११॥..ऋतु मैं ही हूं, यज्ञ मैं ही हूँ. स्वधा अर्थात् श्राद्ध में पितरोंको अर्पण किया हुआ अन्न मैं हूँ औषध मैं हूँ, मंत्र मैं हूँ, घृत अग्नि और आहुति मैं ही हूँ ॥ १६ ॥ इस जगतका पिता माता धाता पितामह मै हूं, जो कुछ पवित्र या जो कुछ श्रेय है वह और ओंकार, ऋग्वेद, सामवेद तथा यजुर्वेद भी मैं हूँ॥ १७ ॥ सबकी गति, सबका पोषक, प्रभु, साक्षी, निवास, शरण, सखा, उत्पत्ति, प्रलय, स्थिति, निधान, और अव्यय बीज मैं हूं ॥ १८ ॥ हे अर्जुन ! मैं उष्णता देता हूं, मैं पानीको रोकता और बरसाता हूं, अमृत और मृत्यु, सत् और असत भी मैं हूँ ॥ १६ ॥ जो त्रैविद्य अर्थात् ऋक्, यजु और सामवेदोंके कर्म करने वाले, सोमपान करनेवाले, निष्पाप पुरुष यज्ञसे मेरी पूजा करके स्वर्गलोककी इच्छा करते हैं, वे पुण्यसे इन्द्रलोकमें पहुंचकर स्वर्गमें देवताओंके दिव्य भोग भोगते हैं ।। २०॥ और उस विशाल स्वर्गलोकका उपभोग करके पुण्यका क्षय हो जानेपर मनुष्य लोकमें आते हैं। इस प्रकार त्रयोधर्मके पालनेवाले और काम्य उपभोगकी इच्छा करनेवालोंको आवागमन प्राप्त होता है ॥ २१ ॥ जो अनन्य निष्ठ लोग मेरा चिन्तनकर मुझे भजते हैं, उन नित्य योगयुक्त पुरुषोंका योग क्षेम मैं करता हूं ॥ २२ ॥ हे कौन्तेय ! जो भी अन्य देवताओंके भक्त लोग श्रद्धायुक्त होकर भजन करते हैं वे भी विधिपूर्वक न होनेपर भी मेरा ही भजन करते हैं ॥ २३ ॥ क्योंकि सब यज्ञोंका भोक्ता और स्वामी मैं हूँ। किन्तु वे तत्त्वतः मुझे नहीं जानते। इसलिये वे गिर जाया करते हैं ॥ २४ ॥........जो मुझे भक्तिसे पत्र, पुष्प, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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