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प्राचीन स्थितिका अन्वेषण
१५५.
एक क्षत्रिय राजाने राज्यासनका परित्याग करके ब्रह्मर्षित्व प्राप्त करनेके लिये बनवास स्वीकार किया था। इसके पूर्व परशुराम और सहस्रार्जुन के समय से ब्राह्मणों और क्षत्रियों में एक लम्बा और मर्मभेदी झगड़ा होता चला आता था और दोनों में से प्रत्येक समूह दूसरे के ऊपर अपना प्रभुत्व स्थापित करनेके लिये प्रयत्नशील था । किन्तु उसके बाद जब नियम में सुधार हुआ तो ब्राह्मणोंने विश्वामित्रको ब्रह्मर्षियों में तथा सर्वोच्च वैदिक ऋषियोंमें सम्मिलित कर लिया तथा उन्हें सप्तर्षियोंमें स्थान दिया और विश्वामित्र अपने लक्ष्यको प्राप्त करनेके लिये जिस गायत्री मंत्रका निर्माण तथा प्रयोग किया था उसे समस्त वैदिक मंत्रोंसे शक्तिशाली और वैदिक शिक्षणका सारभूत मान लिया गया ।
उक्त आख्यानसे स्पष्ट है कि ब्राह्मणों और क्षत्रियोंके बीच में प्रभुत्वको लेकर कितने ही सुदीर्घ काल तक झगड़ा चला और ब्राह्मणोंने एक क्षत्रिय राजाको ब्रह्मर्षि पद देना स्वीकार नहीं किया । किन्तु अन्तमें उन्हें अपनी हटको छोड़ना पड़ा । सम्भयतया उक्त घटना के बादसे ही ब्राह्मणोंने क्षत्रियोंको प्रभुत्व देना स्वीकार किया । उपनिषदों और प्राचीन जैन तथा बौद्ध साहित्यसे पता चलता है कि क्षत्रियोंमें कितना बौद्धिक स्वातंत्र्य था और उन्होंने ज्ञानके क्षेत्रमें भी उच्च स्थान प्राप्त किया था । उपनिषदों की आत्मविद्या तो उन्हीं की देन है । किन्तु उत्तर काल में क्षत्रिय अपनी उस स्थितिको कायम नहीं रख सके और ब्राह्मणोंने अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया । यद्यपि यह प्रभुत्वस्थापन क्षत्रिय श्रीकृष्णकी में ही किया गया । किन्तु उन्होंने उसे विष्णुका पूर्ण अवतार मानकर और उसे ही वेद तथा यज्ञ कहकर विस्मृत तथा उपेक्षित वैदिक यज्ञोंको भी विष्णुके रूप में पुनरुज्जीवित
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