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________________ १५६ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका करनेका प्रयत्न किया, और इस तरह जो लोग जैन और बौद्ध धर्मके प्रचारसे प्रभावित होकर उधर आकृष्ट होते थे उन्हें अपने में ही रोक रखनेका प्रयत्न किया गया। गीताके मुख्य प्रतिपाद्य वासुदेव भक्तिके मूलमें उपनिषदोंसे मेल न खानेवाली जो बातें पाई जाती हैं, यदि जैन और बौद्ध धर्मोके मूल आधारोंके साथ उनकी तुलना करके देखा जाये तो भागवत धर्मकी स्थापनामें उक्त धर्मोंका प्रभाव परिलक्षित होना स्वाभाविक है। जैन धर्मके सभी तीर्थङ्कर क्षत्रिय थे और नरतनधारी थे । बौद्ध धर्मके संस्थापक बुद्ध भी क्षत्रिय और मानव थे। वैदिक धर्ममें भौतिक और स्वर्गीय देवताओंको जो स्थान प्राप्त था वही स्थान जैन धर्ममें मानव तीर्थङ्करको और बौद्ध धर्ममें बुद्धको प्राप्त था। जैनतीर्थङ्कर और बुद्ध दोनोंने राज्यासनका मोह त्यागकर संन्यास धारण किया और पूर्ण ज्ञान लाभ करके अपने-अपने धर्मका उपदेश दिया। उनका उपदेश सबके लिये था। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, स्त्री, सभी उसे न केवल सुननेके अधिकारी थे, किन्तु आचरण करनेके भी अधिकारी थे। तीर्थङ्कर और बुद्धको अपने जीवनकाल में ही राजघरानों, ब्राह्मणों तथा जनसाधारणके द्वारा वैसी ही प्रतिष्ठा प्राप्त हुई जैसी देवताओंको प्राप्त थी। दोनोंने यह उद्घोषित किया कि मानव, मानव रहकर भी देवत्व प्राप्त कर सकता है और उसका मार्ग है, अहिंसा । इस त्याग तपस्या और सुलभ उपदेशने सभीको आकृष्ट किया। वैदिक धर्ममें ये सब बातें नहीं थीं, वहाँ तो एक वर्ग विशेषका प्रभुत्व था। अतः इन धर्मोंके बढ़ते हुए प्रभुत्वको रोकनेके लिये एक ऐसे धर्मकी आवश्यकता थी जिसमें उक्त सब बातोंके साथ अपनी कुछ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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