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३८६ जै० सा० इ०-पूर्व ठिका सम्प्रदायका पूर्वज भी है। अतः हरिषेणका कथन वास्तविक ही प्रतीत होता है।
किन्तु कथामें जिस ढंगसे अर्धफालकसे श्वेताम्बर सम्प्रदायकी उत्पत्ति बतलाई है उसमें वास्तविकताकी प्रतीति नहीं होती। किसी नगरीके राजाके आदेश मात्रसे अर्धेफालकसे श्वेताम्बर बन जाना संभव प्रतीत नहीं होता। असलमें शिथिलाचारिता एक ऐसी वस्तु है जिसका प्रवेश होनेपर यदि उसे न रोका गया तो उसका बढ़ना ही स्वाभाविक है। विनयपिटकका महावग्ग इसपर अच्छा प्रकाश डालता है। बौद्ध संघमें साधु पहले फटे चिथड़े ही धारण करते थे, गृहस्थों के द्वारा दिये गये चीवर धारण करनेका नियम नहीं था। बुद्धने जब गृहपति चीवर धारण करनेकी आज्ञा दे दी तो उसके पश्चात् वस्त्रोंका ढेर लग गया।
यही स्थिति हम श्वेताम्बर सम्प्रदायमें भी पाते हैं। पं० बेचरदास जीने 'जैन साहित्यमें विकार' नामक पुस्तकके 'श्वेताम्बर दिगम्बरवाद' नामक अध्यायमें इस पर साधार प्रकाश डाला है। अतः कथाका वह अंश ‘कविकी ईजाद' हो तो आश्चर्य नहीं है । किन्तु वलभी नगरीमें श्वेताम्बर सम्प्रदायकी उत्पत्ति बतलानेमें अवश्य ही ऐतिहासिक तथ्य निहित है क्योंकि वर्तमानमें उपलब्ध श्वेताम्बरीय आगमोंका संकलन वलभी नगरीमें ही किया गया था। और उनकी संकलना तथा लेखनके पश्चात् श्वेताम्बर-दिगम्बर भेदकी एक ऐसी अटूट दीवार खड़ी हो गई जिसने दोनोंको सर्वदाके लिये पृथक कर दिया। इसीसे श्वेताम्बर सम्प्रदायकी उत्पत्ति वलभी नगरीमें बतलाई गई प्रतीत होती है।
उक्त कथामें एक उल्लेखनीय बात यह भी है कि उसमें जिन
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