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संघ भेद
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निष्कारण करता था वह कुसाधु माना जाता था । तथा प्रारम्भ में शरीरका गुह्य अंग ही ढांकनेका विशेष खयाल रहता था । गुह्य अङ्गके ढाकने वाले वस्त्र खण्डको 'चोलपट्ट कहते थे । चोलपट्टका' प्रमाण स्थविर के लिये दो हाथ और युवाके लिये चार हाथ था । तथा वह चौकोर होता था । हमारे विचार से चुल्लपटसे चोलपट्ट शब्द बना प्रतीत होता है। चुल्ल' का अर्थ हैद्र । अतः चुल्ल पट्टा अर्थात् क्षुद्र वस्त्र होता है । प्रारम्भ में वस्त्रको दाहिने हाथ से पकड़कर नग्नताको ढांका जाता होगा जैसा कि मथुरासे प्राप्त करके शिलापट्ट पर अङ्कित चित्र स्पष्ट है । पीछे उसे धागेके द्वारा कमरमें बांधा जाने लगा होगा। आर्य रक्षित के पिता सोमदेवका श्व ेताम्बर साहित्य में जो वर्णन पाया जाता है उससे भी यही प्रकट होता है । सोमदेव अन्य सब उपकरणोको छोड़ने के लिये तैयार हो जाता है परन्तु अधोवस्त्र छोड़ने के लिये तैयार नहीं होता । तब आर्य रक्षित बड़े कौशल से उससे धोती छुड़वाते हैं और धोतीकी जगह कटिमें धागे से चोलपट्ट बँधवा देते हैं । यह घटना विक्रमकी दूसरी शताब्दी के आरम्भकी बतलाई जाती है। उधर मथुरासे प्राप्त आयागपट्ट भी लगभग उसी समयका है । उसपर सं० ६५ अति है । उस समय कौशाण वंशके अन्तिम सम्राट वासुदेवका राज्य था ।
अतः अर्धस्फालक सम्प्रदायका अस्तित्व किसीकी कल्पनाका विषय न होकर वास्तविक ही है और वही वर्तमान श्वेताम्बर
१ 'चोलस्य पुरुषचिन्हस्य परः प्रावरणवस्त्र चोलपदृः' । - श्रमि० रा० ।
२ दुगुणो चउग्गुणो वा हत्थो चउरंस चोलपट्टीय । थेर जुवाणट्ठा वा सण्हे थूलम्मि य विभासा ॥ २२० ॥
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- प्रव० सारो० ६१ द्वार ।
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