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________________ संघ भेद ३७५ निर्देश देवसेनने किया हो तो यह असंभव नहीं है। एक दूसरे देवसेनने अपने भावसंग्रहमें श्वेताम्बर मतकी उत्पत्तिकी पूरी कथा दी है , जो इस प्रकार है 'उज्जनी नगरीमें भद्रबाहु नामके आचार्य थे। वे निमित्तज्ञानी थे। उन्होंने संघको वुलाकर कहा कि एक बड़ा भारी दुर्भिक्ष होगा जो बारह वर्षों में समाप्त होगा। इसलिये सबको अपने अपने संघोंके साथ अन्य देशोंको चले जाना चाहिये । यह सुनकर सब गणधर अपने अपने संघोंको लेकर उन उन देशोंको विहार कर गये, जहाँ सुभिक्ष था। उनमेंसे एक शांति नामके आचार्य अपने शिष्योंके साथ सौराष्ट्र देशकी वलभी नगरीमें पहुँचे। परन्तु उनके पहुँचनेके बाद वहाँ पर भी बड़ा भारी अकाल पड़ गया। भूखे लोग दूसरोंका पेट फाड़कर और उनका खाया हुआ भात निकाल कर खा जाने लगे। इस निमित्तको पाकर सबने कम्बल, दण्ड, तूम्बा, पात्र, आवरण और सफेद वस्त्र धारण कर लिये , ऋषियोंका आचारण छोड़ दिया और दोनवृत्तिसे भिक्षा ग्रहण करना और बैठकर याचना करके वस. तिकामें जाकर स्वेच्छापूर्वक भोजन करना शुरु कर दिथा। उन्हें इस प्रकार आचरण करते हुए कितना ही समय बीतने पर जब सुभिक्ष हो गया तो शांति आचार्यने उनसे कहा कि अब इस कुत्सित आचारणको छोड़ दो और अपनी निंदा गर्दा करके फिरसे मुनियोंका श्रेष्ठ आचारण ग्रहण कर लो। इन वचनोंको सुन कर उनके एक प्रधान शिष्यने कहा कि अब उस दुर्धर आचरणको कौन धारण कर सकता है ? उपवास, भोजनका न मिलना, तरह तरहके दुस्सह अन्तराय, एक स्थान, अचेलता मौन, ब्रह्मचर्य, भूमि पर सोना, हर दो महीनेमें केशोंका लोच करना, वाइस Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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