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________________ ३७४ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका किया और जम्बू स्वामीके पश्चात् जिनकल्पके विच्छिन्न होनेकी घोषणा करके एक तरहसे उसपर रोक ही लगा दी थी। इन्हींके समयमें इनसे कुछ वर्ष पूर्व नियुक्तियोंके रचयिता द्वितीय भद्रबाहु भी हो गये हैं। इन द्वितीय भद्रबाहु और जिनभद्र गणिके गुरुशिष्य भावके सम्बन्धमें कुछ कह सकना हमारे लिए शक्य नहीं है। क्योंकि जिनभद्रने अपने विशेषावश्यक भाष्यमें भद्रबाहुकृत आवश्यक नियुक्तिका व्याख्यान करने जाकर भी न रचयिता भद्रबाहुका ही नाम लिया और न उनकी कृति आवश्यक नियुक्तिका ही नाम लिया। प्रवचनको प्रणाम करके गुरुके उपदेशानुसार आवश्यक अनुयोगका व्याख्यान करनेकी प्रतिज्ञा की है। यह एक विचित्र सी बात है कि जिस कृतिका व्याख्यान किया जाये उसका नाम तक भी न लिया जाये। इसीसे टीकाकार हेमचन्द्रने यह शङ्का की है कि इस भाष्यमें भद्रबाहु प्रणीत सामायिक नियुक्तिका व्याख्यान किया जायेगा। तब इसे आवश्यकानुयोग क्यों कहा ? टीकाकारने तर्कपद्धतिका आश्रय लेकर शङ्काका समाधान तो कर दिया, किंतु एक सरल जिज्ञासुके लिये तो उक्त शङ्का अन्य अनेक आशङ्काएँ उत्पन्न करनेवाली है, जिनके विस्तारमें जाना यहाँ अप्रासंगिक होगा। - इन जिनभद्रको श्वेताम्बर मतका संस्थापक या प्रवर्तक तो नहीं माना जा सकता, किन्तु प्रबलपोषक और समर्थक होनेमें तो रंचमात्र भी संदेह नहीं है। अतः जिनभद्र नामसे यदि इन्हींका १-कयपवयणप्पणामो वोच्छं चरणगुणसंगहंसयलं । श्रावस्सायाणुओंगं गुरूवए साणु सारेण ॥१॥ -वि० भा० । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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