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________________ २७८ जै० सा० इ० पूर्व पीठिका इस तरह पार्श्वनाथ के धर्ममें चार चारित्रोंका विधान तो दिगम्बर साहित्य में भी मिलता है और यह भी मिलता है कि उसमें एककी वृद्धि करके महावीर स्वामीने उनकी संख्या पाँच कर दी थी। किन्तु चतुर्यमका निर्देश नहीं मिलता। हाँ, अकलंकदेव के तत्वार्थवार्तिक में ( ० १ सू० ७ ) निर्देशादि का विधान करते हुए चारित्र के चार भेद भी बतलाये हैं- 'चतुर्धा चतुर्यमभेदात् । चार यमोंके भेदसे चारित्रके चार भेद हैं। तथा सामायिक आदिकी अपेक्षा पाँच भेद हैं । यहाँ चतुर्यम तथोक्त चतुर्याम के लिये आया हो, ऐसा प्रतीत होता है । जैनाचार के अनुसार निर्ग्रन्थ जैन साधु मुनिदीक्षा लेते समय सामायिक संयमको ही धारण करता है - 'समस्त पाप कार्यों का मैं त्याग करता हूँ इस प्रकार एक यमरूपसे व्रत धारण करने का नाम सामायिक' है और उसी एक यमरूप व्रतके भेद करके पाँच यमरूपसे धारण करनेका नाम छेदोपस्थापना' है । सामायिक संयम में दूषण लगा लेने पर छेदोपस्थापना चारित्र धारण कराया जाता है | मध्यके बाईस तीर्थङ्करोंके द्वारा छेदोपस्थापना तथा अनिवार्य प्रतिक्रमणका विधान न करने और प्रथम तथा अन्तिम तीर्थङ्कर १—–'संगहिय सयलसंजममेयज मणुत्तरं दुखगम्मं । जीवो समुव्वहंतो सामाइयसंजमा होई || १८७ ॥ - षट् खं०, पु० १, ५० ३७२ । २ -- छेतूणय परियायं पोराणे जो ठवेइ अप्पाणं । पंचजमे धम्मे सो छेदोबडावश्रो जीवो ॥ १८८ ॥ Jain Educationa International - षट् खं० पु० १, पृ० ३७२ । For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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