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________________ प्राचार्य काल गणना ३६५ ओर गये । द्वेषी वररुचिने उन्हें राजाके अन्तःपुरमें पहुँचा दिया । जब वह भोजन करके चले गये तो वररुचिने नन्दसे कहा कि यह शकटाल भिक्षाके बहानेसे आपके अन्तःपुरमें रमण करनेके लिये गया था। नन्दने रुष्ट होकर शकटालको मारनेके लिये अपने आदमी भेज दिये। सब वृत्तांत जानकर शकटालने छुरीसे अपना पेट फार डाला और शांतभावसे मृत्युका आलिंगन किया। ___ इस कथामें यद्यपि चंद्रगुप्त और चाणक्यका कोई वृत्तांत नहीं आया, किंतु कथावस्तु गुणाढ्यको कथासे कुछ मेल अवश्य खाती है। वृहत्कथा कोशकी रचना भगवतो आराधना नामक एक प्राचीन जैन प्रथमें आये हुए दृष्टांतोंके आधार पर हुई है। उसमें शकटाल मुनिके सम्बंधमें जो गाथा आई है वह इस प्रकार है सगडालएण वि तहा सत्तग्गहणेण साधिदो अत्थो । वररुह पश्रोगहेतुं रुढे णंदे महापउमे ॥२०७६।। इस गाथाका अर्थ स्पष्ट है कि-'वररुचिके प्रयोगके द्वारा महापद्म नन्दके रुष्ट हो जाने पर शकटालने भी शस्त्र ग्रहणके द्वारा अपना प्रयोजन सिद्ध किया। किंतु आराधनाके टीकाकार श्री अपराजित सूरिको सम्भवतया शकटाल और महापद्मनन्दके जीवन वृत्तांतका परिचय नहीं था। शायद इसीसे उन्होंने 'महापउमे' महापद्म धर्माचार्यस्य समीपे प्रतिपन्नदीक्षण' किया हैअर्थात् शकटालने महापद्म धर्माचार्यके निकट दीक्षा ली थी। इसीसे 'रुट्ठ णंदे' शब्दोंका अर्थ उन्होंने छोड़ दिया है। और हरिषेणको शकटाल और नंदकी कथा ज्ञात होने पर भी उन्होंने अपने पूर्ववर्ती अपराजित सूरिके व्याख्यानका ही अनुसरण अपनी कथामें किया प्रतीत होता है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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