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________________ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका अध्ययनमें दत्त उपदेश हृदयग्राही हैं। परीषह नामक दूसरा अध्ययन 'सुयं मे आउसं ! तेणं भगवया एवमक्खायं' वाक्यसे प्रारम्भ होता है। इसमें बाईस परीषहों का कथन पद्यमें है । तृण परीषह का वर्णन करते हुए लिखा है-'अचेल, रूक्ष, तपस्वी संयमी तृणों पर सोता है अतः उसके शरीर का विदारण होता है। तथा घाम का भी कष्ट होता है। किन्तु तृणपरीषहसे पीड़ित होने पर भी साधु वस्त्रगृहण नहीं करते ॥ तीसरे चतुरङ्गीय अध्ययनमें चार वस्तुओं को उत्तरोत्तर दुर्लभ बतलाया है। प्रथम नरजन्म, दूसरे धर्मश्रवण, तीसर श्रद्धा और चौथे अपनी शक्ति को संयममें लगाना। चौथे असंस्कृत नामक अध्ययन में कहा है कि जीवन असंस्करणीय है इसे बढ़ाया नहीं जा सकता और वृद्धावस्था आने पर रक्षाका कोई उपाय नहीं है अतः प्रमाद मत करो। पाँचवे अकाममरण नामक अध्ययन में अकाम मरण और सकाम मरणका वर्णन है। छठे क्षुल्लक निग्रन्थीय नामक अध्ययन में साधुके सामान्य आचारका कथन है । अन्तिम वाक्य में कहा है कि अनुत्तर ज्ञान दर्शनके धारी ज्ञातृपुत्र भगवान वैशालिक (विशालाके पुत्र महावीर ) ने ऐसा कहा । ___ सातवें औरभ्रीय नामक अध्ययन में पाँच दृष्टान्तोंके द्वारा निम्रन्थोंका उद्वोधन किया गया है। वे पाँच दृष्टान्त हैं-मेढ़ा, काकिनी, आम्र फल, व्यापार और समुद्र । आठवें कापिलीय १-गा० ३४-३५। २-एवं से उदाहु अणुचरनाणी अणुत्तरदंसी अणुत्तरनाणदसणधरे अरहा नायपुत्ते भगवं वैसालीए वियाहिए ।१८।। त्ति वेमि । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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