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________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण १२६ ज्ञान-वैराग्यमय परमहंस धर्मकी शिक्षा देनेके लिए शरीरके सिवा सब त्यागकर नंगे, बाल खुले हुए, ब्रह्मावर्तसे चल देते हैं। राहमें कोई टोकता है तो मौन रहते हैं। लोग उन्हें सताते हैं पर वह उससे विचलित नहीं होते। मैं और मेरेके अभिमानसे दूर हैं । परमरूपवान होते हुए भी अवधूतकी तरह एकाकी विचरण करते हैं। देहभरमें धूल भरी है असंस्कारके कारण बाल उलझ गये हैं। ___ "इस प्रकार भगवान ऋषभजीने योगियोंके करने योग्य आचरण दिखलानेके लिये ही अनेक योगचर्याओंका आचरण किया; क्योंकि वह स्वयं भगवान् मोनके स्वामी एवं परममहत् थे। उनको बिना चाहे आकाशमें उड़ना, मनके समान सर्वत्र गति, अन्तर्धान, परकायप्रवेश और दूरदर्शन आदि सिद्धियाँ प्राप्त थीं किन्तु उनको उनकी कुछ भी चाह नहीं थी। इस तरह भगवान् ऋषभदेव लोकपाल शिरोमणि होकर भी सब ऐश्वर्योंको तृणतुल्य त्यागकर अकेले अवधूतोंकी भाँति आचरण धारणकर विचारने लगे। देखनेसे वह एक सिड़ी जान पड़ते थे, सिवा ज्ञानियोंके मूढजन उनके प्रभाव और ऐश्वर्यका अनुभव नहीं कर सकते थे। यद्यपि वे जीवन्मुक्त थे तो भी योगियोंको किस प्रकार शरीरका त्याग करना चाहिये, इसकी शिक्षा देनेके लिये उन्होंने अपना स्थूल शरीर त्यागनेकी इच्छा की । जैसे कुम्भकारका चाक घुमाकर छोड़ देनेपर भी थोड़ीदेर तक आप ही आप घूमा करता है वैसे ही लिङ्ग शरीर त्याग देनेपर भी योग मायाकी वासना द्वारा भगवान ऋषभका स्थूल शरीर संस्कारवश भ्रमण करता हुआ कोंक, बैंक, कुटक, और दक्षिण कर्नाटक देशोंमें यहक्षा पूर्वक प्राप्त हुआ। वहाँ कुटकाचलके उपवनमें, सीड़ियोंकी तरह बड़ी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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