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________________ श्रुतपरिचय ६७७ और गणधर' उसे सुनते हैं। इस सब कथनका तात्पर्य यही निकलता है सामायिक आदि आवश्यक गणधर कृत हैं। ___ अतः श्वेताम्बर सम्प्रदायमें भी अंगबाह्यके गणधर कृत होनेकी मान्यता रहो है। हरिवंशकार जिनसेनके समयमें दोनों सम्प्रदायोंमें इस मान्यताका प्राबल्य था ऐसा प्रतीत होता है। अंगबाह्यको उत्तरकालमें क्यों गणधर प्रणीत माना जाने लगा, इस सम्बन्धमें कुछ कहना शक्य नहीं है । फिर भी अग प्रविष्टकी तरह उसका भी प्रामाण्य और महत्ता स्थापित करने की भावना उसके मूल में अवश्य रही है । अस्तु, अंगबाह्यके भेद दिगम्बर परम्परामें पूज्यपादने तत्वार्थसूत्रके अनुसार अंगबाह्य के अनेक भेद बतलाते हुए उनकी संख्या या नामोंका कोई निर्देश नहीं किया। केवल उदाहरण रूपसे दश वैकालिकका नाम निर्देश मात्र कर दिया। अकलंक देवने नन्दिसूत्रकी तरह अगबाह्यके कालिक और उत्कालिक भेद करके उदाहरण रूपमें उत्तराध्ययनका नाम निर्देश कर दिया। किन्तु वीरसेन स्वामीने अपनी धवला जयधवला' टीकामें अंगबाह्यके चौदह भेदोंके नाम गिनाकर उनका विषय परिचय भी संक्षेपमें दिया है । सम्भवतः उन्हींका अनुसरण करते हुए जिनसेनने भी अपने हरिवंश पुराणमें अंगबाह्यके १४ भेद १–गा०२१२२। गा० २१२५ । २-सर्वार्थ० १-२० । ३-'तदनेकविधं कालिकोत्कालिकादिविकल्पात् ।' त० वा०, १-२०-१४ । ४-षटखं०, पु०, १, पृ० ६६ । ५-क० पा०, भा० १, पृ०६७। ६-स० २, श्लो० १०२-१०५ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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