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________________ ६७८ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिक। गिनाये हैं। उन भेदोंमें दशवकालिक और उत्तराध्ययनका भी नाम है । चौदह भेद इस प्रकार हैं-सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव. वन्दना, प्रतिक्रमण, वैनयिक, कृतिकर्म, दश वैकालिक, उत्तराध्ययन, कल्प व्यवहार, कल्प्पाकल्प्य, महाकल्प्य पुण्डरीक, महापुण्डरीक और निषिद्धिका। वीरसेन स्वामीके पश्चात् उन्हींका अनुकरण करते हुए नेमिचन्द्र' सिद्धान्त चक्रवर्ती, श्रुत सागर सूरि आदिने भी अंगबाह्यके भेद गिनाये हैं। ____ यह हम लिख आये हैं कि नन्दि० (सू० ४४) में अंगबाह्य के आवश्यक और आवश्यक व्यतिरिक्त भेद करके आवश्यक व्यतिरिक्तके कालिक और उत्कालिक भेद किये हैं। तथा दश वैकालिकको उत्कालिकके भेदामें और उत्तराध्ययनको कालिकके भेदोंमें गिनाया है। अंगवायके भेदों का समीकरण नन्दी सूत्र में अंगबाह्यके जो भेद गिनाये हैं उनके साथ में इनमेंसे कुछ भेदोंका समीकरण हो जाता है___ नन्दीमें अगबाह्यके दो मूल भेद हैं-आवश्यक और आवश्यक व्यतिरिक्त। तथा आवश्यक छै भेद हैं-सामायिक, चतुर्विशतिस्तव, बन्दना, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान । उक्त भेदोंमेसे शुरुके चार दोनोंमें एक ही हैं, केवल अन्तके दो में अन्तर है। नन्दिमें कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान हैं और ऊपर वैनयिक और कृतिकर्म हैं । यद्यपि दिगम्बर परम्परामें षडावश्यक वे ही हैं जो श्वेताम्बर परम्परामें हैं, और १--गो० जी०, गा० ३६६-३६७ । २--त० वृ०, पृ० ६७ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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