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________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण ५६ छा० उ० (६-१-४) में लिखा है कि जब श्वेतकेतु सम्पूर्ण वेदोंका अध्ययन कर अपनेको बड़ा बुद्धिमान और व्याख्याता मानता हुआ अनम्रभावसे घर लौटा तो पिता ने उससे कहापुत्र ! तू जो ऐसा पाण्डित्यका अभिमानी और अविनीत है तो क्या तूने वह आदेश जाना है जिसके द्वारा अश्रुत श्रुत हो जाता है, अमत मत हो जाता है और अविज्ञात विज्ञात हो जाता है ? यह सुनकर श्वेतकेतु ने पूछा-वह आदेश क्या है ? पिताके मुखसे उस आदेशको सुनकर श्वेतकेतु ने कहा-निश्चय ही मेरे गुरु इसे नहीं जानते थे। अब आप ही मुझे बतलाइये । कहना न होगा कि वह आदेश ब्रह्मके स्वरूपको लेकर था। आत्मा और ब्रह्म आत्मा और ब्रह्मको समझे बिना उपनिषदोंको नहीं समझा जा सकता। इन दो स्तम्भों पर ही उपनिषदोंके तत्त्वज्ञानका प्रासाद खड़ा हुआ है। यदि एक वाक्यमें उपनिषदोंका मूल सिद्धान्त कहा जाये तो यह है-'विश्व ब्रह्म है और ब्रह्म आत्मा है।' उपनिषदोंमें अनेक स्थानोंमें ब्रह्म और आत्मा शब्दका प्रयोग एक अर्थमें किया गया है। बृह. उप० (४-४-५ ) में लिखा है-'स वायमात्मा ब्रह्म' वह यह आत्मा ब्रह्म है। छा० उ० (५-११-१ ) में लिखा हैकुछ महागृहस्थ और परमश्रोत्रिय परस्परमें विचार करने लगे'को नु आत्मा, किं ब्रह्म !' आत्मा कौन है और ब्रह्म क्या है ? __ वेदोंमें 'ब्रह्म' शब्द अनेक बार आया है। किन्तु उसका अर्थ या तो प्रार्थना है या मंत्रविधि है। किसी देवताके प्रति श्रद्धा या भक्तिका भाव वहाँ नहीं है। उत्तर काल में त्रयीविद्या ( ऋक् यजु, साम) को भी ब्रह्म कहा है और इस तरह ब्रह्म और वेद Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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