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________________ ६ - जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका शब्दका प्रयोग एक ही अर्थमें किया गया है। अब चूंकि वेद या ब्रह्मको दैवी माना गया था और वेदोंसे उत्पन्न अथवा वेदोंमें वर्णित यज्ञको भी दैवी माना गया था, क्योंकि शत० ब्रा० (५, ५.५-१०) में कहा है-'समस्त यज्ञ उतने ही महान हैं जितने महान् तीनों वेद हैं।' अतः वह ब्रह्म या वेद 'प्रथमज' कहा जाने लगा और अन्तमें उसे सबका मूल कारण माना जाने लगा। इस प्रकार ब्रह्म दैवी मूल तत्त्वके रूपमें ब्राह्मण-दर्शनका बीज है । और प्रार्थना तथा यज्ञके सम्बन्धमें जो ब्राह्मण दृष्टिकोण है उसके प्रकाशमें उसका विश्लेषण अच्छी तरह किया जा सकता है । (हि० इं० लि० विन्ट०, जि० १, पृ० २४८-६) । ____ अब 'आत्मा' शब्दको लीजिये। संस्कृतमें यह शब्द बहुतायतसे आता है और इसका अर्थ भी स्पष्ट है। यह 'स्वयं को कहता है। यद्यपि बाह्य संसारसे भेद दिखलाते हुए आत्मा शब्दका प्रयोग कभी कभी शरीरके लिये भी हो जाता है किन्तु इसका यथार्थ मतलब शरीरस्थ आत्मासे है, जो शरीरसे भिन्न है। उपनिषदोंके दर्शन में ये दोनों ब्रह्म-आत्मा संयुक्त हो गये हैं। छा० उ० (३-१४ ) में शाण्डिल्यका सिद्धान्त 'सर्वं खल्वि ब्रह्म' 'निश्चय ही यह सब ब्रह्म है, से आरम्भ होता है और आत्माका वर्णन करनेके पश्चात् 'एष म आत्मान्तह दय एतद् ब्रह्म''वह मेरा आत्मा हृदय कमलमें स्थित है वही ब्रह्म है' इत्यादि वाक्य के साथ समाप्त होता है। आत्म जिज्ञासा उपनिषदोंके अवलोकनसे ज्ञात होता है कि वैदिक ऋषियोंके अन्दर दो जिज्ञासाएँ विशेषरूपसे क्रियात्मक थीं- एक, विश्वका Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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