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________________ जै० ३७८ न देखकर राजाको बड़ा कौतुक हुआ और वह अपनी रानीसे बोला देवि ! तुम्हारा यह अर्धफालक संघ तो ठीक नहीं प्रतीत होता, तो यह वसे वेष्ठित ही है और न नग्न ही है । एक दिन राजाने उस संघसे कहा कि तुम लोग अर्धवस्त्रको छोड़कर निन्थताको अपना लो । यदि निर्ग्रन्थ रूपको धारण करने में तुम लोग असमर्थ हो तो इस अर्धफालककी विडम्बनाको छोड़कर मेरे आदेश से अपने शरीरको ऋजु वस्त्रसे ढांककर विहार करो। उस दिनसे प्रवाद राजाकी आज्ञासे प्रेमीहृदय लाट देश वासियोंका काम्बल तीर्थ प्रवर्तित हुआ । इसके पश्चात् दक्षिणापथ में स्थित सावलिपत्तनमें उस काम्बल सम्प्रदायसे यापनीय संघ उत्पन्न हुआ ।' ० सा० इ० - पूर्व पीठिका Jain Educationa International भट्टारक रत्ननन्दिने सम्भवतः देवसेन और हरिषेणकी कथाओंको सम्बद्ध करके अपने भद्रबाहु चरित्रको लिखा है । इसीसे उनकी कथामें परिवर्तन भी देखा जाता है। उनके परिवर्तित कथा भागका संक्षिप्त रूप इस प्रकार है- 'भद्रबाहु स्वामी - की भविष्य वाणी होनेपर बारह हजार साधु उनके साथ दक्षिणकी भोर विहार कर गये । परन्तु रामल्य, स्थूलाचार्य और स्थूलभद्र आदि मुनि उज्जैनीमें ही रह गये । दुर्भिक्ष पड़ने पर उनके शिष्य विशाखाचार्य आदि लौटकर उज्जैनी श्राये । उस समय स्थूलाच ने अपने साथियोंसे कहा कि शिथिलाचार छोड़ दो। पर उन्होंने क्रोधित होकर स्थलाचार्यको मार डाला। इन शिथिलाचारियोंसे अर्धंफालक सम्प्रदायका जन्म हुआ। इसके बहुत समय बाद उज्जयिनीमें चन्द्रकीर्ति नामका राजा हुआ । उसकी कन्या वलभीपुरके राजाको ब्याही गई । उस कन्याने अर्धफालक साधु के पास विद्याध्ययन किया था, इसलिये वह उनकी भक्त थी । एक बार उसने अपने पति से उन साधुओं को अपने यहाँ For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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