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जै० सा० इ० - पूर्व पीटिका
तारकी गन्ध भी नहीं है । सम्भवतया उक्त भावनाको ही लेकर अवतारवादके सिद्धान्तको अवतरित किया गया ।
चूंकि अवतारवादके सिद्धान्तका अवतार एक समस्याको हल करनेके लिये हुआ था और उस समस्याको हल करने के दो उपाय थे - एक उच्च व्यक्तित्व सम्पन्न मानवकी परमेश्वरके रूपमें प्रतिष्ठा, दूसरे अन्य धर्मोमें पूजित होनेवाले महापुरुषों अथवा विशिष्ट व्यक्तियों को भी उसी एक अपने परमात्माका अंश मानकर अपने अवतारोंकी माला में गूंथना, जिससे उधर आकृष्ट होनेवाले स्त्री-पुरुष उन व्यक्तियों को भी उसी एक विष्णुका अंशावतार मानकर विष्णुके पूर्णावतारकी ओर ही आकृष्ट हों तथा उनकी दृष्टि में पूर्णावतारी श्रीकृष्णकी तुलना में उन विशिष्ट व्यक्तियोंकी प्रतिष्ठा कम हो जाये । आजके समन्वयवादी व्यक्तियोंकी दृष्टि से यह भी कहा जा सकता है कि सब धर्मों के महापुरुषोंका समन्वय करनेके लिये ऐसा किया गया. क्योंकि गीताके नौवें अध्याय में कहा गया है कि जो भी अन्य देवताओंके भक्त लोग श्रद्धायुक्त होकर भजन करते हैं वे भी मेरा ही भजन करते हैं । किन्तु उस समन्वय में भी वही दृष्टि कार्य करती है। उसीके फलस्वरूप जैनोंके ऋषभ देव, सांख्योंके कपिल और बौद्धों बुद्धको विष्णु अवतारों में स्थान दिया गया ।
यहाँ यह स्पष्ट कर देना उचित होगा कि जैन धर्ममें २४ तीर्थंकर और बौद्ध धर्म - ५ बुद्ध माने गये हैं । बुद्धके निर्वाणके पश्चात्से ही बौद्ध २५ बुद्धोंको मानते आये हैं । इसी तरह जैनों में चौबीस तीर्थङ्करोंकी मान्यता भी अति प्राचीन है और दिगम्बर और वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों में इस विषय में ऐकमत्य है | किन्तु हिन्दू अवतारोंकी संख्या में क्रमिक विकास हुआ है ।
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