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प्राचीन स्थितिका अन्वेषण
१६१ मैं प्रत्येक युगमें अवतार लेता हूं, यही अवतारवाद है। इसके सम्बन्धमें श्री ए० बार्थ (रि० इं०, पृ० १६६-१७० ) ने लिखा है-'यथार्थमें अवतारोंकी मालामें गूथे गये देवताको, जो वैदिक धर्मके देवताओंकी तरह केवल भावात्मक नहीं हैं किन्तु ठोस द्रव्य हैं, उच्च व्यक्तित्वसम्पन्न हैं, अधिक क्या मानव है, पूजनेकी प्रवृत्ति चलाकर ब्राह्मणोंने पुरानी समस्याको नई शैलीमें हल कर लिया ।' मि० बार्थ के अनुसार अवतारवादका जन्म जनतामें फैले हुए असन्तोषका परिणाम था। वैदिक देवता जहाँ प्राकृतिक व्यक्तियोंके रूप थे वहाँ भावात्मक भी थे उपनिषदोंका ब्रह्मवाद तो शुद्ध भावात्मक था। भावात्मक वस्तुसे जन साधारणका परितोष नहीं होता। उसे कुछ ठोस वस्तु भी चाहिये जो मूर्त रूप भी हो। जिसकी मात बनाकर पूजा वगैरह की जा सके। इतनी विशेषताओंके साथ यदि वह मानवरूप भी हो तो कहना ही क्या है? " असलमें श्री कृष्णको परमेश्वर मानना और अवतारवादका सिद्धान्त ये दो अलग अलग तत्त्व नहीं हैं। क्योंकि अवतारवाद का सिद्धान्त स्वीकार करने पर ही क्षत्रिय श्री कृष्णको परमेश्वरका अवतार माना जा सकता है। फिर जब यह कहा गया कि मैं प्रत्येक युगमें अवतार लेता हूँ, तब तो श्री कृष्णके सिवाय अन्य अवतारोंको मानना भी आवश्यक था। ___ अधिकांश विद्वानोंका मत है कि ईसासे तीन सौ वर्ष पूर्व वासुदेव कृष्ण विष्णुके अवतार माने जाने लगे थे। और उनके अवतारकी बात चलनेके बाद बाकी अवतार भी विष्णुके ही अवतार माने जाने लगे। यद्यपि ब्राह्मण ग्रन्थोंमें अवतारवादकी भावना पाई जाती है । शतपथ ब्राह्मणमें लिखा है कि प्रजापतिने मत्स्य कूर्म और वराहका अवतार लिया था, किन्तु विष्णुके अव
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