SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 188
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण १६३ सबसे अधिक अवतार संख्या २२-२३ श्रीमद्भागवतमें मिलती है । उसका रचनाकाल ईस्वी सातवीं शती है । अतः हिन्दू अवतारोंकी संख्या पर भी जैन-बौद्ध प्रभाव परिलक्षित होता है । जैन पुराणोंमें श्री कृष्ण जिस तरह हिन्दू पुराणोंमें ऋषभ देवका उल्लेख है उसी तरह जैन पुराणों में श्री कृष्णका न केवल उल्लेख है किन्तु विस्तृत चरित भी वर्णित है और उसके वर्णनका मुख्य कारण यह है कि जैन अनुश्रुति के अनुसार श्री कृष्ण २२ वें जैन तीर्थङ्कर श्री नेमिनाथ के चचेरे भाई थे । तथा जैन धर्मके ६३ शलाका पुरुषों में से थे। इसीसे जैन पुराणोंमें श्री कृष्णके प्रति प्रायः वैसा ही आदर भाव व्यक्त किया गया है जैसा श्रीमद्भागवत में किया गया है । किन्तु उन्हें मानव रूप में परमात्मा नहीं माना । नेमिनाथ और श्रीकृष्ण, दोनोका जन्म यदुकुल में हुआ था । उनके प्रपितामहका नाम शूर था और पितामहका नाम था अन्धकवृष्णी । शूरने मथुरा के निकट सौरिपुर नामक नगर की स्थापना की थी। सौरिपुर नरेश श्रन्धकवृष्णि के दस पुत्र थे । उनमें से बड़े पुत्रका नाम समुद्र विजय था । अन्धकवृष्णिने अपने बड़े पुत्र समुद्र विजयको राज्य देकर जिनदीक्षा धारण कर ली । उनके सबसे छोटे पुत्र का नाम वसुदेव था । वह अपने बड़े भाई समुद्र विजयके अनुशासन में रहता था और अनेक कलाओं में पारङ्गत था । गायन और वादनकला में वह इतना निपुण था कि जब वह गाता था तो उसके मनोहर स्वर और रूपसे आकृष्ट होकर नगरकी नारियाँ अपना-अपना काम छोड़कर उसके चारों ओर एकत्र हो जाती थीं । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy