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________________ श्रुतावतार ५४३ हस्तान्तरित किया जाता था। श्वेताम्बर सम्प्रदायमें भी यही परम्परा रही है। सुधर्मा स्वामीने अपने शिष्य जम्बूको, जम्बूने प्रभवको, प्रभवने शायंभव को, और शायंभवने यशोभद्रको स्वयं ही अपना उत्तराधिकारी चुना था। किन्तु पाटलीपुत्रवाचनामें हम संघका ही प्राधान्य पाते हैं। उस वाचनाका कोई प्रमुख नहीं था जब पूर्वोकी वाचना देनेके ऊपर भद्रबाहुसे कुछ संघर्ष हो गया तो संघकी ओरसे ही उनके पास दण्ड. विधानकी आज्ञा प्रेषित की गई थी। इसके निर्णयके लिये आयश्यक चूर्णि, तित्यागाली पइन्ना और परिशिष्ट पर्व आदिको देखा जा सकता है। किन्तु दिगम्बर परम्परामें अंगज्ञानका उत्तराधिकार गुरु शिष्य परम्पराके रूपमें ही प्रवाहित होता हुआ माना गया है । उसके अनुसार अंगज्ञानने कभी भी सार्वजनिक रूप नहीं लिया। आवलिक्रमसे गुरुके द्वारा जिसे उसका उत्तराधिकार प्राप्त हुआ, वही उसका प्रामाणिक अधिकारी समझा गया। उसने इस विषयमें जन-जनकी स्मृतिको प्रमाण नहीं माना। इसीसे दिगम्बर परम्परामें अंगज्ञानको सामूहिक रूपसे संकलित करनेका न कभी प्रयत्न किया गया और न ऐसे प्रयत्नको सराहा गया। उक्त विश्लेषणसे पाठक समझ सकेंगे कि दिगम्बर परम्परामें श्वेताम्बर सम्प्रदायकी तरह अंगोंके संकलनका समूहिक प्रयत्न क्यों नहीं किया गया और क्यों दिगम्बरोंने उक्त रीतिसे संकलित आगमोंको मान्य नहीं किया। इससे यद्यप उनकी अपार क्षति हुई। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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