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________________ ४७४ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका चलन नहीं हुआ था- यह भी वराहमिहिरके उक्त उल्लेख से प्रकट होता है। प्रश्न होता है कि जैन सम्प्रदायके लिये प्रसिद्ध प्राचीन निम्रन्थ शब्दके होते हुए भी डा० हानलेने वराहमिहिरके द्वारा प्रयुक्त आजी वक शब्दसे ही क्यों दिगम्बर जैनोंका ग्रहण किये जानेकी कल्पना की ? जहाँ तक हम जान सके हैं इसके दो कारण हो सकते हैं प्रथम, डा० हार्नले निग्रन्थोंको सवस्त्र मानते हैं इसलिये उनके अभिप्रायानुसार निम्रन्थोंसे दिगम्बर जैनोंका ग्रहण नहीं हो सकता। दूसरे उनकी मान्यताके अनुसार वराहमिहिरके समयमें आजीविक सम्प्रदाय लुप्त हो गया था, फिर भी उन्होंने आजीविकोंका ग्रहण किया, इससे भी शायद डा• हानलेको यह हुआ कि उस समय पाये जाने वाले दिगम्बर जैन साधुओंके लिये हो आजीविक शब्दका प्रयोग किया गया है। प्रथम कारणके सम्बन्ध में हम पहले भी लिख चुके हैं कि महावीर, जो निग्रन्थ सम्प्रदाय के प्रधान थे, नग्न रहते थे और अपने समयमें पाये जाने वाले पार्थापत्योंको पुनर्दीक्षा देकर ही अपने संघमें सम्मिलित करते थे। उनका वस्त्रपरित्यागका नियम ढुलमुल नहीं था। अतः महावीरके निग्रन्थ साधु अवश्य ही नग्न होने चाहियें। फिर वराहमिहिरके समयमें तो दिगम्बर जैन साधुके लिये ही निग्रन्थ शब्दका व्यवहार होता था। डा० बुलहरने लिखा है कि चीनी यात्री हुएन्त्सांगके वर्णनसे जो निम्रन्थोंको लि-ही' लिखता है प्रकट है कि ईसाकी सातवीं शतीके आरम्भमें भो वे अपने नियमोंके प्रति जागरूक थे। हुएन्त्सांगने लिखा है-'कि लि-ही (निर्ग्रन्थ) अपने शरीरको नग्न रखते 1 The LI-HI ( Nirgranthas ) distinguish them selves by leaving their bodies naked and pull Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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