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संघ भेद
४७३ मग, सूर्यके, भस्माश्चित द्विज शम्भुके, मातृमण्डलवेत्ता माताओंके, शाक्य बुद्धके, और नग्न जिनके उपासक या प्रतिष्ठापक होते हैं। यहाँ नग्न शब्द निग्रन्थोंके लिये ही आया है, आजीविकोंके लिये नहीं आया। क्योंकि यद्यपि गोशालकने अपनेको जिन, कहलाना चाहा था इसलिये यह कहा जा सकता है कि आजीविक भी जिन के उपासक थे, किन्तु प्रथम तो आजीविकोंके विषयमें यह कहीं नहीं लिखा कि वे जिनके उपासक थे। दूसरे आजीविकोंके जिनोंकी प्रतिमा बनाकर पूजनेका कोई निर्देश नहीं मिलता, न उनके मन्दिर
और मूर्तियाँ ही मिलती हैं। ___इसके सिवाय वराहमिहिरने बृ० सं० के प्रतिमालक्षणाध्यायमें विष्णु, बलदेव, शाम्ब, प्रद्युम्न, ब्रहा, स्कन्द, शम्भु, बुद्ध और जिनकी प्रतिमाका लक्षण बतलाया है। यहाँ उन्होंने जिनका निर्देश 'अर्हतां देव' 'आहतोंका देव' रूपसे किया है। लिखा है-अर्हन्त देवकी प्रतिमाके दोनों बाहू जानुपर्यन्त होने चाहिएँ, उनके वक्षस्थल श्रीवत्ससे अंकित होना चाहिये, मूर्ति प्रशान्त हो, तथा नग्न, तरुण और रूपवान होना चाहिये।
ये सब लक्षण दिगम्बर जैन मूर्तियोंमें आज भी पाये जाते हैं। यही सच्चा निम्रन्थ रूप है। अतः निग्रन्थ', नग्न और अहत् शब्दोंका प्रयोग वराहमिहिरने एक ही अर्थमें किया है । वह अर्थ है दिगम्बर जैन । उस समय तक श्वेताम्बरोंमें भी सवस्त्र मूर्तियों का १-प्राजानु लम्बवाहुः श्रीवत्साङ्क प्रशान्तमूर्तिश्च ।
दिग्वासास्तरुणो रूपवांश्च कार्योऽर्हतां देवः ॥४५॥ २-भट्टोत्पलने वृहज्जातक ( १५-१ ) की टीकामें जहाँ श्राजीविकका
अर्थ एकदंडी भिक्षु किया है, वहाँ निर्ग्रन्थका अर्थ नग्न क्षपणक किया है । यथा-'निर्ग्रन्थः नग्नः क्षपणकः प्रावरणरहितः' ।
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