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जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका और लघुजातकमें हैं तापस'- वृद्धश्रावक, रक्तपट आजीविक भिक्षु; चरक और निम्रन्थ । यहाँ शाक्य और रक्तपट एक हैं तथा वन्याशन और तापस एक हैं। इसलिये वृहज्जातक और लघु. जातकके नाम निर्देशमें कोई अन्तर नहीं है।
लघुजातक (१२-१२) की टीकामें उद्धृत एक श्लोकमें भी प्रत्रज्यायोगके लिये सात प्रकारके साधुओंका निर्देश किया है जो इसप्रकार है- वानप्रस्थ, कापाली, बौद्ध, एकदण्डी त्रिदण्डी, योगी और नग्न । यहां तापससे वानप्रस्थ, वृद्धश्रावकसे कापालिक, रक्तपटसे बौद्ध, आजीविकसे एकदण्डी, भिक्षुसे त्रिदण्डी, चरकसे योगी
और निग्रन्थसे नग्नका ग्रहण किया गया है। और यही अर्थ वराहमिहिरको भी मान्य था। अतः उन्होंने निग्रन्थसे दिगम्बर जैनोंका ग्रहण किया है न कि आजीविकोंसे, उनके वृहत्संहिता नामक ग्रन्थके अवलोकनसे ही यह बात स्पष्ट हो जाती है। __वृ० सं० के प्रतिमा प्रतिष्ठापनाध्यायमें वराहमिहिरने बतलाया है कि कौन किस देवताका भक्त है । लिखा है-भागवत विष्णुके १-तापस-वृद्ध-श्रावक-रक्तपटाजीवि-भिक्षु-चरकाणां । निर्ग्रन्थानां चार्कात् पराजितैः प्रच्युतिर्बलिभिः ॥
-लजा० १२-१२', २–'वानप्रस्थोऽथ कापाली, बौद्धः पादेकदण्डिनः ।
त्रिदण्डी योगिनो नग्नः प्रव्रज्यार्कादितः क्रमात् ॥ ३-'विष्णो र्भागवतान् मगांश्च सवितुः शम्भोः सभस्मद्विजान्
मातृणामपि मण्डलक्रमविदो विप्रान् विदुर्ब्रह्मणः । शाक्यान् सर्वहितस्य शान्तमनसो नग्नान् जिनानां विदुः ये यं देवमुपाश्रिताः स्वविधिना तैस्तस्य कार्याः क्रियाः ॥१६॥
-वृ० सं०, ६०
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