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________________ संघ भेद और दिगम्बरोंको स्पष्ट रूपसे एक नहीं बतलाया। हां, हलायुधने' अपनी अभि० र० (२-१६०) में नग्नाट, दिगम्बर, चपणक, श्रमण जैन, जीव, और निन्थको एकार्थवाची अवश्य बतलाया है 1 तथा 'रजोहरणधारी और श्व ेतवासको सिताम्बर कहा है । ४७१ हलायुध के द्वारा प्रयुक्त शब्दोंको देख कर हमें ऐसा लगता है कि नंगे साधुओंके लिये प्रयुक्त होने वाले शब्दों को उन्होंने एकार्थवाची मान लिया है। इससे उनके द्वारा प्रयुक्त 'आजीव' शब्दको दिगम्बरोंके वाचकके रूपमें गम्भीरता के साथ नहीं लिया जा सकता । दूसरे, हलायुध के समकालीन भट्टोत्पलने, जो कि वराह मिहिर का टीकाकार है, कालिकाचार्यके एक प्राकृत पद्यके आधार पर आजीविकोंको एक दण्डी बतलाया है । भट्टोत्पल ( ई० ८५० के लगभग ) ने लिखा है एक दण्डी अथवा आजीविक नारायण के भक्त थे। शीलांकने एक दण्डियोंको शिवका भक्त बतलाया है । अतः हलायुधका आजीविको और दिगम्बर जैनोंको एकार्थवाची बतलाना प्रमाण कोटि में लिये जानेके उपयुक्त प्रतीत नहीं होता । तथा वराहमिहिर ने प्रव्रज्या योग बतलाते हुए जिन सात प्रकारके साधुओंका निर्देश किया है उनके नाम बृहज्जातकमें इसप्रकार हैंशाक्य, आजीविक, भिक्षु, वृद्ध, चरक, निर्ग्रन्थ और वन्याशन | ------ १- 'नग्नाटो दिग्वासाः क्षपणः श्रमणश्च जीवको जैनः । वो मलधारी निर्ग्रन्थः कथ्यते सद्भिः ॥ १६०॥' २ - 'रजोहरणधारी च श्वतवासाः सिताम्बरः ॥ १८६॥ ' ३ – 'शाक्याजीविकभिक्षुवृद्धचरका निर्मन्थवन्याशनाः - वृ० जा० ( १५-१ ) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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