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श्रुतावतार करने का कोई प्रयत्न नहीं हुआ, यह निश्चित है और इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि इससे पहले श्रागम ग्रन्थों का कोई एक रूप निर्धारित नहीं हो सका था जो पूरे सम्प्रदाय को मान्य हो और ऐसी स्थितिमें उन्हें लिपिबद्ध करना सम्प्रदायभेदका जनक हो सकता था।
मुनि जीने अनुयोगद्वारसूत्र और निशीथ चूर्णिसे दो उद्धरण देकर यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि दवर्द्धिगणिके पहले भी लिखे हुए आगम होते थे । निशीथ चूर्णिमें कालिक श्रुत और कालिक श्रुत नियुक्तिके लिये पाँच प्रकारकी पुस्तकें रखने का अधिकार साधुको दिया है। निशीथ चूणिसे पहले ही वलभी में आगम ग्रन्थोंका लिखना जारी हो चुका था। अतः उसके इस उल्लेखसे देवर्द्धिगणिके पूर्वमें आगम ग्रन्थोंका लिपिवद्ध होना प्रमाणित नहीं होता। हाँ अनुयोग द्वारको आर्यरक्षित की कृति माना जाता है और आर्यरक्षितका समय विक्रमकी प्रथम द्वितीय शताब्दी कहा जाता है। अनुयोगद्वारमें पुस्तकमें लिखितको द्रव्य श्रुत कहा है। इस परसे मुनि जीने यह संभावना की है कि- 'कोई आश्चर्य नहीं है, यदि उन्होंने (आयुरक्षित जीने) उसी समय मन्द बुद्धि साधुओंके अनुगृहार्थ अपवाद मार्गसे आगम लिखने की भी आज्ञा दे दी हो (पृ० १०६)। मुनिजीकी इस संभावनासे हम सहमत हैं। हमारी आपत्ति माथुरी वाचना
और प्रथम वलभी वाचनामें सब आगमोंके लिपिवद्ध किये जाने पर है ; क्योंकि उसका समर्थन एक हेमचन्द्रके सिवाय अन्य किसी स्रोतसे नहीं होता। यदि नागार्जुन और स्कन्दिलाचार्यने अपनी अपनी प्रमुखतामें संकलित जैनसूत्रोंको तत्काल लिपि बद्ध करा लिया होता और वह सब श्रुत पुस्तक रूपमें उपलब्ध
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