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जै० सा० इ०-पूर्व-पीठिका होता तो देवर्द्धि गणिको वलभीमें मथुराकी तरह सम्मेलन बुलानेकी आवश्यकता प्रतीत नहीं होती। शायद कहा जाये कि वाचना भेदोंको व्यवस्थित करनेके लिये श्रमण सम्मेलन बुलाया गया। किन्तु जब माथुरी वाचनाके अनुसार ही सब सिद्धान्त लिखे गये तो समन्वयवाली बात नहीं रहती।।
इसके सिवाय यदि उक्त दोनों वाचनाओंके पुस्तकारूढ़ सूत्र देवद्धि गणिके सम्मेलनमें उपस्थित होते और यदि दोनों वाचनानुयायी संघोंमें संघर्ष हुआ होता तो श्वेताम्बरोंमें ही दो प्रकारके सूत्र ग्रन्थ उपलब्ध होते, फिर वालभ्य प्राचार्य अपने पाठ भेदोंको केवल टीकाओंमें निर्दिष्ट कराकर शान्त न होते । अतः श्वेताम्बरोंमें जो देवर्द्धिगणिके समयमें हा नेवाली बलभी वाचनाकी ही परम्परा प्रचलित है, वह निस्सार नहीं है और समय सुन्दर गणिने अपनी सामाचारीमें जो देवर्द्धि गणिके महत्कार्यका स्पष्टी. करण किया है. वह उसी परम्पराका साक्षी है।
नन्दि स्थविरावलीकी स्कन्दिलाचार्यसम्बन्धी गाथाके व्याख्यानमें मलयगिरिने माथुरी वाचना क्यों स्कन्दिलाचार्यकी कही जाती है इसका स्पष्टीकरण करते हुये लिखा है कि वह
१-सा च तत्कालयुगप्रधानानां स्कन्दिलाचार्याणामभिमता तैरेव चार्थतः शिष्यबुद्धि प्रापितेति तदनुयोगः तेषामाचार्याणां सम्बन्धोति व्यपदिश्यते । अपरे पुनरेवमाहुः-न किमपि श्रुतं दुर्मिक्षवशात् अनेशत् किन्तु तावदेव तत्काले श्रुतमनुवर्ततेस्म । केवलमन्ये प्रधाना येऽनुयोगधरा ते सर्वेऽपि दुर्भिक्षकालकवलीकृताः, एक एव स्कन्दिलसूरयो विद्यन्ते स्म । ततस्तै दुर्भिक्षापगमे मथुरापुरि पुनरनुयोगः प्रवर्तितः इति वाचना माथुरीति व्यपदिश्यते, अनुयोगश्च तेषा माचार्याणा मिति ।"-नन्दि०, गा० ३३ टीका।
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