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श्रुतावतार
५११ वाचना उस समयके युग प्रधान स्कन्दिलाचार्यको अभिमत थी
और उन्हींके द्वारा अर्थरूपसे शिष्य बुद्धिको प्राप्त हुई थी इस लिये वह अनुयोग उनका कहा जाता है।' आगे उन्होंने 'अपरे' करके एक मत और दिया है जो इस प्रकार है- दूसरोंका कहना है कि दुर्भिक्षके वश कुछ भी श्रुत नष्ट नहीं हुआ था, सब श्रुत वर्तमान था । किन्तु अन्य सब प्रधान अनुयोगधर काल के गालमें चले गये केवल एक स्कन्दिलसूरि शेष बचे। उन्होने दुर्भिक्ष चले जानेपर मथुरा में पुनः अनुयोगका प्रवर्तन किया इसलिये उसे माथुरी वाचना कहते हैं और वह अनुयोग स्कन्दिलाचार्यका कहा जाता है।
इस तरह जब स्कन्दिलाचार्यके द्वारा पुनः प्रवर्तित होने मात्रसे भी माथुरी वाचनाके अनुयोगको स्कन्दिलाचार्यका कहा गया है। तब देवर्द्धिगणिने तो वलभीमें आगमको अन्तिम रूप देकर और उन्हें पुस्तकारूढ़ करके सर्वदाके लिये अनुयोग प्रवर्तित कर दिया। अतः यदि उन्हें मात्र पुस्तक लेखक न कहकर वर्तमान आगमोंका रचयिता भी कहा जाये-जैसा कि समय सुन्दर गणिने कहा है तो कोई अत्युक्ति नहीं है।
स्व० डा० याकोवीने जैन सूत्रोंकी अपनी प्रस्तावनामें देवर्द्धि गणिके कार्यके सम्बन्धमें विस्तारसे प्रकाश डाला है। डा. याकोवीका मत भी हीनाधिक रूपमें मुनिजीके ही अनुकूल है अतः उसे भी यहां दे देना उचित होगा। डा० याकोवीने लिखा है_ 'सर्व सम्मत परम्पराके अनुसार जैन आगम अथवा सिद्धांतोंका संग्रह देवद्धि की अध्यक्षतामें वलभी सम्मेलनमें हुआ। कल्पसूत्रमें उसका समय वीर निर्वाण ६८० या (९३
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