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________________ ५१२ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका ( ४५४ या ४६७ ई० ) दिया है । परम्परा कथन है कि सिद्धान्तके नष्ट हो आनेके खतरेको जानकर देवद्धि ने उसे पुस्तकोंमें लिखाया। इससे पूर्व गुरुजन अपने छात्रोंको सिद्धान्त पढ़ाते समय पुस्तकोंका उपयोग नहीं करते थे। किन्तु इसके पश्चात् उन्होंने पुस्तकोंका उपयोग किया। इस कथनका उत्तरभाग स्पष्ट रूपसे सत्य है, क्योंकि प्राचीन कालमें पुस्तकोंका उपयोग नहीं किया जाता था । पुस्तकोंकी अपेक्षा स्मृतिपर अधिक विश्वास करनेका ब्राह्मणोंमें रिवाज था। और इसमें कोई सन्देह नहीं है कि इस विषयमें जैनों और बौद्धोंने उनका अनुसरण किया। किन्तु आजकल यतिगण अपने शिष्योंको जब पवित्र सूत्र पढ़ाते हैं तो पुस्तकोंका उपयोग करते हैं। मैं इसमें कोई कारण नहीं पाता कि हमें इस परम्परा पर क्यों नहीं विश्वास करना चाहिये कि शिक्षणके ढंगमें इस परिवर्तनको लानेका श्रेय देवर्द्धिगणिको है क्योंकि यह घटना बहुत महत्वपूर्ण थी। प्रत्येक गणि अथवा उपाश्रयको आगमोंकी प्रतियाँ प्रदान करनेके लिये देवगिणिने सिद्धान्तोंका एक वृहत संस्करण अवश्य कराया होगा। देवद्धिके द्वारा सिद्धान्तोंको पुस्तकारूढ़ करानेके परम्परागत कथनका सम्भवतः यही अभिप्राय है; क्योंकि यह बात कठिनतासे विश्वसनीय है कि इसके पहले जैन साधु जो कुछ कण्ठस्थ करते थे उसे लिख लेनेका प्रयत्न नहीं करते थे। ब्राह्मण भी अपने धर्मशास्त्रोंकी पुस्तकें रखते थे यद्यपि वे वेद पढ़ाते समय उसका उपयोग नहीं करते थे। ये पुस्तकें गुरुओंके व्यक्तिगत उपयोगके लिये होती थीं। मुझे इसमें सन्देह नहीं है कि जैन साध भी इस प्रथाका विशेष रूपसे पालन करते थे क्योंकि ब्राह्मणोंकी तरह प्रतियों पर विश्वास न करनेकी प्रथासे वे प्रभावित नहीं थे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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