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श्रु तपरिचय
५५६ इण्डियन एण्टीक रीमें प्रकाशित हुआ था। उसमें उन्होंने यह लिखा है कि दृष्टिवादका लोप जान बूझ कर किया गया। यहाँ उसके सम्बन्ध में विवेचन किया जाता है। ____ यद्यपि श्वेताम्बरोंके छठे, आठवें और दसवें अंगोंमें चौदह पूर्वोका उल्लेख मिलता है, तथापि दृष्टिवादका उल्लेख चौथे 'समवायांगके सिवाय अन्य अंगोंमें नहीं मिलता। हां, उपांगोंसे वारह अंगोंका अस्तित्व अवश्य प्रकट होता है । यद्यपि ८ से १२ तक उगंगों में, जो अन्य उपागोंसे प्राचीन माने जाते हैं, ११ अंगों का ही उल्लेख है। किन्तु प्रथम उपांग औपपातिक में चउदसपुन्नी, और 'दुवालमंगिनो पद आता है, तथा चतुर्थ उपांग के आरम्भमें दिट्ठोवाअ' और 'पुव्वसुयं' पद आया है । इनके सिवाय उपांग ५ और ७, पूर्वोका पाहुड़ों में विभाजन बतलाते हैं तथा उपांग ६ के अनुसार पूर्वोका वस्तुओंमें विभाजन था। अतः अंगोंकी अपेक्षा उपांगोंसे पूवोंके सम्बन्धमें विशेष जानकारी प्राप्त होती है। श्वेताम्बर परम्परा बारह अङ्गोंको तरह बारह' उपांग
१-'नवरं सामाइयमाइआई चोहसपुन्नाई अहिजई'-अन्तगड०, पृ०७।
२–'दुवाल संगे गणि पिडगे "दिट्ठीवाए ।'-समवा०, पृ०१३६ । ३–'सामाइयमाइयाइ एक्कारस अङ्गाई-निरया०, पृ० ३१, ४-'दुवालसंगिणो समत्तगणिपिडगधरा,-अोप०, सू० १६ ।
५-ौपपातिक; रायपसेणी, जीवाभिगम, प्रज्ञापना, सूर्य प्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, कल्पिका, कल्पावतंसिका, पुष्पिका पुष्पचूलिका और वृष्णिदशा ये बारह उपाग हैं । नं ८ से १२ तकको निरयावली कहते हैं ।
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