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जै० सा० इ० पू०पीठिका बीस वर्ष में पाँच आचार्य सम्पूर्ण ग्यारह अंगों के तथा चौदह पूर्वोके एक देश के ज्ञाता हुए। उनके पश्चात् एक सौ अट्ठारह वर्ष में चार आचार्य सम्पूर्ण आचारांग के साथ ही साथ शेष अंगों
और पूर्वोके एक देशके ज्ञाता हुए। इस तरह छ सौ तिरासी वर्ष पर्यन्त अर्थात् विक्रमकी द्वितीय शताब्दीके पूर्वार्ध तक दिगम्बर परम्परामें अंगोंके साथही साथ पूर्वोका भी एक देशज्ञान प्रवर्तित रहा । और अन्तमें धरसेन स्वामीने पूर्वोका विशकलित ज्ञान भूतबलि और पुष्पदन्तको दिया, जिन्होंने पट्खण्डागम सूत्रोंको निबद्ध किया। श्वेताम्बर परम्परामें स्थूल भद्रके पश्चात् महागिरी सुहस्तीसे लेकर वज्रस्वामी पर्यन्त दसपूर्वी हुए । वज्रस्वामीके पश्चात् कोई दसपूर्वी नहीं हुआ। स्थाविरावलीके अनुसार वि० सं११४ में वज्रस्वामी स्वर्गवासी हुए। तत्पश्चात् दुब्ब लिया ( वि० सं० १४६) के समय ह। पूर्व शेष थे। दुर्वलिका पुष्यमित्र और उनके गुरु आर्य रक्षितको नौ पूर्वी कहा है । जिस समय ( वि० नि० ९८०) वल्भीनगरीमें देवर्द्धि गणि ने अंगोंको पुस्तकारूढ़ किया उस समय केवल एक पूर्व शेष था । पश्चात् वह भी लुप्त हो गया। इस तरह श्वेताम्बर परम्पराके अनुसार वीर निर्वाणके एक हजार वर्षे बीतने पर पूर्वोका लोप हो गया। और पूर्वोके साथ ही बारहवा अंग दृष्टिवाद भी लुप्त हो गया।
क्या दृष्टिवादका लोप जान बूझकर किया गया ?
डा० वेबर ने श्वेताम्बरीय आगमिक साहित्यके विषयमें एक विस्तृत आलोचनात्मक निबन्ध लिखा था जिसका अनुवाद
१-महागिरि सुहस्त्याद्या वज्रान्ता दशपूविणः ॥ ३४ ॥'-अभि० चि०, १ का।
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