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________________ ६२७ श्रुतपरिचय 'नौ लाख, नवासी हजार दो सौ पदोंके द्वारा जल में गमन और जलस्तम्भनके कारणभूत मंत्र तंत्र तपश्चरण का तथा अग्नि का स्तम्भन करना, अग्नि का भक्षण करना, अग्निपर आसन लगाना, अग्निपर तैरना अदि क्रियाओंके कारणभूत प्रयोगोंका वर्णन करती है। थलगता चूलिका उतने ही पदोंसे कुलाचल, मेरु महीधर, गिरि और पृथ्वीके भीतर गमनके कारणभूत मंत्र तंत्र तपश्वरण का तथा वास्तुविद्या और भूमि सम्बन्धी अन्य शुभाशुभ कारणों का वर्णन करती है। मायागत चूलिका उतने ही पदोंके द्वारा महेन्द्र जालका वर्णन करती है । रूपगता चूलिका उतने ही पदोंके द्वारा सिंह, घोड़ा, हाथी, हरिण, खरगोश, वृक्ष आदिके आकारसे रूप को बदलने की विधिका तथा नरेन्द्रवादका और चित्रकर्म, काष्ठकर्म, लेप्यकर्म, लेनकर्म आदिका वर्णन करती है । आकाशगत चूलिका उतने ही पदोंके द्वारा आकाशमें गमन करनेके कारणभूत मंत्र तंत्र तपश्चरण आदि का वर्णन करती है। इन पांचों ही चूलिकाओंके पदोंका जोड़ दस करोड़ उनचास लाख छयालीस हजार है। ४ पूर्वोका परिचय १ उत्पादपूर्व-जीव, काल और पुद्गल द्रव्यके उत्पाद व्यय और ध्रौव्य का वर्णन करता है। इसमें दस वस्तु, दोसौ प्राभृत और एक करोड़ पद होते हैं। २ अग्रायणीपूर्व- क्रियावाद अदि की प्रक्रिया को अग्रायणी कहते हैं उसका जिसमें वर्णन हो उसे अग्रायणी पूर्व कहते हैं (त. वा०, पृ.७४)। अग्रायणी पूर्व अंगोंके अग्र का कथन करता है (षटखं; पु. १ पृ. ११५)। अग्रायणी पूर्व सातसौ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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