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________________ ५७६ ज० सा० इ०-पूर्व पीठिका कालमें ही जिसको स्वाध्यायकी जाती है उसे कालिक श्रुत कहते हैं । सूर्योदयसे एक घड़ी पूर्व तथा एक घड़ी पश्चात्, एवं सूर्यास्तसे एक घड़ी पूर्व तथा एक घड़ी पश्चात्, मध्याह्नके समय तथा अर्ध रात्रिके समय स्वाध्याय नहीं करना चाहिये। किन्तु दिनके प्रथम प्रहर और अन्तिम प्रहर तथा रात्रिके प्रथम प्रहर और अन्तिम प्रहरमें अस्वाध्याय कालको बचाकर अवश्य स्वाध्याय करना चाहिए। अतः दिन और रात्रिके प्रथम तथा अन्तिम प्रहरमें ही जिसकी स्वाध्याय करनेका विधान हो वह 'कालिक श्रुत है। और जो काल वेलाको छोड़कर शेषकालमें पढ़ा जाता है उसे उत्कालिक कहते हैं। . ऊपर दृष्टिवादको गमिक श्रुत और कालिकको अगमिक श्रुत कहा है । अतः इससे दृष्टिवाद और कालिक श्रुतमें प्रतिपक्षी भाव प्रतीत हो सकता है। किन्तु कालिक श्रुत अंग बाह्यका भेद बतलाया है अंग प्रविष्टका नहीं। अतः दृष्टिवादमें और शेष ग्यारह अङ्गोंमें कोई प्रतिपक्षी भाव प्रतीत नहीं होता। किन्तु मलय गिरिने२ आवश्यक टीकामें और मलधारी १--'यदिह दिवसनिशाप्रथमचरिमपौरुषीद्वय एव पठ्यते तत्कालेन निर्वृत्तं कालिकम्-उत्तराध्ययनादि,यत्पुनः कालवेलावर्ज पठ्यते तदूर्ध्वं कालिकादित्युत्कालिकं-दशवैकालिकादीति' ॥ -स्था०, सू० ७१, अभयवृत्तिः। 'तत्रदिवसनिशाप्रथमचरिमपौरुषीलक्षणे काले अधीयते नान्यत्रेति कालिकम्-उत्तराध्ययनादि, यत्तु कालवेलावर्ज शेषकालानियमेन पठ्यते तदुत्कालिकम्-अावश्यकादि ।-अनु०,सू० ४, मल० टी० । २—'कालिकश्रुतं--एकादशांगरूपं चरणकरणानुयोगरूपमिति गम्यते' ।—ाव० टी० भा० २ पृ० ३६६ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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