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श्रु तपरिचय हेमचन्द्रने विशे० भा०की टीकामें स्पष्ट रूपसे एकादशांगको भी कालिक श्रुत कहा है। हेमचन्द्रने लिखा है कि-'एकादशांगरूप समस्त श्रुत कालग्रहण विधिके द्वारा पढ़ा जाता है इसलिए उसे कालिक कहते हैं।
ऊपरके उल्लेखोंसे यह स्पष्ट है कालिक उत्कालिकका भेद अंग बाह्य में ही था, अंग प्रविष्ट में नहीं था। दिगम्बर परम्पगके आचाय अकलंक देवने भी अपने तत्त्वार्थ वार्तिकमें अङ्गबाह्य के ही कालिक उत्कालिक भेद किये हैं ? इस परसे ऐसा अनुमान होता है कि पीछेसे एकादशांगको भी कालिकमें सम्मिलित कर लिया गया; क्योंकि दो उल्लेखोंमें एकादशांगकी गणना कालिक श्रुतमें की गई है। भगवतीसूत्रमें गौतम भगवानसे प्रश्न करते हैं कि तीर्थङ्करोंके तेईस अन्तरालोंमें कालिक श्रुतका कब-कब विच्छेद हुआ ? भगवान् उत्तर देते हैं कि पूर्वके आठ तथा अन्तके आठ जिनान्तरोंमें कालिक श्रुतका विच्छेद नहीं हुआ। किन्तु मध्यके सात जिनान्तरों में कालिक श्रुतका विच्छेद हुआ। किन्तु दृष्टिवाद का विच्छेद सभी जिनान्तरों में हुआ ।' यहाँ पर कालिक श्रुतसे अवश्य ही एकादशांग रूप श्रुतका ग्रहण अभीष्ट है। क्योंकि
१–'इहैकादशाङ्गरूपं सर्वमपि श्रुतं कालग्रहणादिविधिनाऽधीयत इति कालिकमुच्यते । तत्र प्रायश्चरणकरणे एव प्रतिपाद्यते।'
-वि० भा० टी०, गा० २२६४ । २-"तदंगबाह्यमनेकविधं कालिकमुत्कलिकामित्येवमादिविकल्पात् । स्वाध्यायकाले नियतकालं कालिकम्, अनियतकालमुत्कालिकम् । तद्भदा उत्तराध्ययनादयोऽनेकविधाः ।”—त० वा०, सू०
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