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________________ ५७८ जै० सा० इ० पू०पीठिका अङ्ग प्रविष्ट और अङ्गबाह्यमें भेद बतलाते हुए कहा है कि अङ्ग प्रविष्ट अर्थात् द्वादशांग समस्त तीर्थङ्करोंके तीर्थमें अवश्य रहता है किन्तु तन्दुलवैकालिक आदि अङ्ग बाह्य अनियत है-उसका रहना अवश्यंभावि नहीं है; क्योंकि वह तो अपने अपने युगके प्राचार्योंकी रचना है। अतः भगवती में कालिक श्रुतसे एकादशांग ही लिया गया है यह स्पष्ट है। इसी तरह आवश्यक में चार अनुयोगोंका विभाग करते हुए कहा है कि कालिक श्रुत चरण करणानुयोग रूप है, ऋषिभाषित धर्मकथानुयोग रूप है, सूर्यप्रज्ञप्ति गणितानुयोग रूप है और दृष्टिवाद द्रव्यानुयोग रूप है । यहाँ पर भी कालिक श्रुतसे एकाद. शांगका ग्रहण इष्ट है । यतः एकादशांगरूप श्रुत कालादि विधिके द्वारा पढ़ा जाता था अतः उसे भी कालिक श्रुत मान लिया गया ऐसा प्रतीत होता है। किन्तु दृष्टिवाद जैसे महत्त्वपूर्ण अङ्गके पठनके लिए कालादिविधि आवश्यक नहीं समझी गई, यह थोड़ा आश्चर्यजनक जैसा लगता है । अस्तु, १-विशे० भा०, टी०, गा०, ५५० । २-'एएसु णं भंते ! तेवीसाए जिणंतरे कस्स कहिं कालियसुयस्स वोच्छेदे पण्णते ? गोयमा ! एएसु णं तेवीसाए जिणंतरेसु पुरिभे पच्छिमएसु अट्ठसु अट्ठसु जिणंतरेसु एत्थ णं कालियसुयस्स अवोच्छेदे पणत्ते । मझिमएसु सत्तसु जिणंतरेसु एत्थ णं कालियसुअस्स वोच्छेदे पण्णत्ते । सव्वत्थवि णं वोच्छेदे दिट्टीवाए ।'-~-भ०, २०श०, ८उ० । - ३-'कालियसुश्रं च इसि भासिाइं तइयो अ सूर पन्नति । सव्वो अ दिट्ठीवाश्रो चउत्थरो होइ अणुअोगो ।।२२६४।।। -वि० भा० । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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