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श्रुतपरिचय श्रुत, संल्लेखनाश्रु त, विहारकल्प, चरण विधि, आतुर प्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान आदि । यह सब उत्कालिक श्रुत है।
कालिक के भी अनेक भेद हैं-उत्तराध्ययन, दसाओ, कल्प, व्यवहार, निशीथ, महानिशीथ, ऋषिभाषित, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, दीप सागर प्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति, क्षुल्लिका, विमान प्रविभक्ति, महा विमान प्रविभक्ति, अंग चूलिका, वर्ग चूलिका, विवाह चूलिका, अरुणोपपात, वरुणोपपात, गरुडोपपात, धरणोपपात, वैश्रवणोपपात, वेलंधरोपपात, देवेन्द्रोपपात, उत्थान श्रुत, समुत्थान श्रुत, नाग परिज्ञा, निरयावली, कल्पिका, कल्पावतंसिका, पुष्पिता, पुष्पचूलिका, वृष्णिदशा, इत्यादि । चौरासी हजार प्रकीर्णक भगवान ऋषभदेव के समय में थे। मध्यके बाईस तीर्थङ्करोंके समयमें संख्यात हजार प्रकीर्णक थे और भगवान वर्द्धमान स्वामी के चौदह हजार प्रकीर्णक थे। अथवा जिस तीर्थङ्कर के जितने श्रमण शिष्य थे उसके उतने ही प्रकीर्णक थे और उतने ही प्रत्येक बुद्ध थे । ये सर कालिक श्रुत है। __स्थानांग' सूत्र में भी श्रुत ज्ञान के दो भेद -अग प्रविष्ठ और अङ्गबाह्य बतलाकर अङ्ग बाह्य के दो भेद किये हैंआवश्यक और आवश्यक व्यतिरिक्त । तथा आवश्यक व्यतिरिक्त के दो भेद किये हैं-कालिक और उत्कालिक । इस तरह अङ्गबाह्य के ही कालिक और उत्कालिक भेद किये गये हैं। अनुयोग२. द्वार में भी ऐसा ही कथन है।
जिसकी स्वाध्यायका काल नियत होता है अर्थात् नियत
१-स्थाना०, २ स्था०, सू० ७१ । २-'जइ अणंगपविट्ठस्स अणुरोगो, किं कालिअस्स, अणुशोगो ? उक्कालिक्स्स अणुशोगो ? -अनु०, सू. ४,
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