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श्रमिक भेदों से हैं । दृष्टिवाद को गमिक श्रुत कहा है और कालिक श्रुत को अगमिक कहा है।
वि० भा० ' में कहा है कि जिसमें 'गम' अर्थात् भंग और गणित आदि बहुत हों अथवा जिसमें 'गम' अर्थात् सदृशपाठ बहुत हों उसे गमिक कहते हैं और दृष्टिवाद में प्रायः ऐसा पाया जाता है । और जो प्रायः गाथा श्लोक आदि असदृश पाठबहुल होता है उसे अगमिक कहते हैं। कालिक श्रुत प्रायः ऐसा होता है ।
जं
० सा० इ० पूर्व पीठिका
कालिक श्रुत
हमें देखना है कि कालिक श्रुत किसे कहते हैं । नन्दि सूत्रमें श्रुत के अंग प्रविष्ट और अंगबाह्य दो भेद करके अंगके भेदोंको विस्तारसे इस प्रकार बतलाया है
बाह्य दो भेद हैं- आवश्यक और आवश्यक व्यतिरिक्त । आवश्यक के छै भेद हैं- सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, बन्दना, प्रतिक्रमण, कार्योत्सर्ग और प्रत्याख्यान । आवश्यक व्यतिरिक्तके दो भेद हैं-कालिक, उत्कालिक । उत्कालिक के. अनेक भेद हैं- दशवैकालिक, कल्पा कल्प, चुल्लकल्प श्रुत, महाकल्पश्रु त, औपपातिक, राजप्रश्नीय, जीवाभिगम, प्रज्ञापना, महा प्रज्ञापना, प्रमादाप्रमाद, नन्दी, अनुयोगद्वार देवेन्द्रस्त, तन्दुलवैकालिक, चन्द्रा विज्झण, सूर्य प्रज्ञप्ति, पौरुषीमण्डल, मण्डल प्रवेश, विद्या चरण विनिश्चय, विद्या, ध्यानविभक्ति, मरण विभक्ति, आत्म विशुद्धि, वीतराग
१ – 'भंगगणियाइ' गमियं जं सरिसगमं च कारणवसेण । गाहाइ अगमियं खलु कालियसुयं दिट्ठीवाए वा " || ५४६ ॥ - विशे० भा० । २- नन्दी० सू० ४४ ।
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