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________________ श्रुतपरिचय ५७३ चिन्तन करनेमें असमर्थ हैं । अतः कालिकी उपदेशकी अपेक्षा वे संज्ञी नहीं हैं । जो क्षायोपशमिक ज्ञानसे युक्त सम्यग्दृष्टि दृष्टिवादके उपदेश से संज्ञी होता है उसे दृष्टिवादोपदेश से संज्ञी कहते हैं। इस तरह संज्ञोके तीन भेद होने से श्रुतके भी तीन भेद कहे हैं सर्वज्ञ सर्वदर्शी अरहंत भगवानके द्वारा प्रणीत द्वादशांग रूप गाणिपिटकको' सम्यक् श्रुत कहते हैं । वह इस प्रकार हैआचार, सूत्रकृत, स्थान, समवाय, विवाह पण्णत्ती, ज्ञातृ धर्मकथा, उपासक दशा, अन्तः कृद्दश, अनुत्तरोपपादिक दश, प्रश्नव्याकरण विपाक सूत्र और दृष्टिवाद । यह द्वादशांगरूप गणि पिटक चतुर्दश पूर्वीका सम्यक् श्रुत है, अन्यका सम्यक् श्रुत भी हो सकता है, मिथ्या श्रुत भी हो सकता है । यही द्वादशांग गणि पिटक पर्यायार्थिक नय से सादि और सपर्यवसित ( सान्त ) है और द्रव्यार्थिक नयसे अनादि और पर्यसित है । अथवा भव्य का श्रुत सादि और सपर्यवसित है और अभव्यका श्रुत अनादि और अपर्यवसित है । दृष्टिवाद गमिक श्रुत है और कालिक श्रुत अगमिक है । गणधर के द्वारा रचित द्वादशांग रूप श्रतको अंग प्रविष्ट कहते Train द्वारा रचित श्रुतको अंग बाह्य कहते हैं । इस प्रकार श्वताम्बरीय साहित्य में श्रुत के चौदह भेद गिनाये हैं । यहाँ इन भेदों में से हमारा प्रयोजन केवल गमिक और १ - नन्दी०, सू०४१ | वि० भा०, गा० ५२७ । २ - नन्दी ० सू० ४३ । ३ – “गणहर थेरकयं वा विसेस वा अंगागंगेसु नारणत्तं" || ५५० ॥ - वि० भा० । Jain Educationa International एसामुक्कवागरण श्रो वा । धुव चल For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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