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________________ ५७२ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका श्रुत, सादि श्रुत, अनादि श्रुत, सपर्यवसित, अपर्यवसित, गमिक, अगमिक, अंग प्रविष्ट और अनंग प्रविष्ट । अक्षर' श्रुतके तीन भेद हैं-संज्ञाक्षर, व्यञ्जनाक्षर और लब्ध्यक्षर। अक्षरके आकारको अथवा आकार रूप अक्षरको संज्ञाक्षर कहते हैं। अक्षरकेउच्चारणको अथवा उच्चारणरूप अक्षरको व्यंजनाक्षर कहते हैं और लब्धिरूप अक्षरको अर्थात् अक्षरके क्षयोपशमको लब्ध्यक्षर कहते हैं। ___ लब्ध्यक्षरके छै भेद हैं-श्रोत्रेन्द्रिय लब्ध्यक्षर, चक्षु इन्द्रिय लब्ध्यक्षर, घ्राणोन्द्रिय लब्ध्यक्षर, रसनेन्द्रिय लब्ध्यक्षर, स्पर्शनेन्द्रिय लब्ध्यक्षर, और नौ इन्द्रिय लब्ध्यक्षर। इस लब्ध्यक्षर को ही अक्षर श्रत कहते हैं। अनक्षरात्मक श्रुतको अनतर श्रुत कहते हैं। अनक्षर श्रुत के अनेक भेद हैं । जैसे-दीर्घ श्वास लेना, थूकना, खांसना, छींकना, आदि । संज्ञीश्रु त२ के तीन भेद हैं-कालिकी उपदेश, हेतूपदेश और दृष्टिवादोपदेश की अपेक्षासे। दीर्घ कालीन अतीत वस्तुका स्मरण करनेको और अनागतका विचार करनेको कालिकी संज्ञा कहते हैं। जिस प्राणीके उस प्रकारकी संज्ञा पाई जाती है वह कालिन्की उपदेशसे संज्ञी कहा जाता है। और जिसके इस प्रकारकी संज्ञा नहीं होती उसे असंज्ञी कहते हैं । जैसे सम्मूर्छन पश्चेन्द्रिय विकलेन्द्रिय आदि । जो बुद्धिपूर्वक इष्ट आहारादिमें प्रवृत्ति करता है और अनिष्टसे बचता है उसे हेतूपदेशसे संज्ञी कहते हैं। चूकि द्वीन्द्रियादिमें भी इस प्रकारकी प्रवृत्ति पाई जाती है इसलिये वे हेतूपदेशसे संज्ञी है। किन्तु वे अतीत अनागतका १–नन्दी०, सू०, ३६ । विशे० भा०, गा० ४६८ अादि । २--नन्दी सू० ४० । विशे० भा०-गा० ५०४ आदि । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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