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श्रुतपरिचय किन्तु परम्परासे यह स्पष्ट प्रमाणित होता है कि दृष्टिवादका पठन-पाठन बहुत ही सीमित था और इसका कारण यह भी था कि वह बहुत कठिन था, उसमें दार्शनिक विषयोंको भरपूर चर्चा थी तथा अन्य अगोंसे उसका विषय भी अति गूढ था। सम्भवतया इसीसे वह विस्मृत हो गया। __ श्वेतांबरीय उल्लेखोंके अनुसार तो पूर्वोसे ही अगोंकी रचना की गई है अतः पूर्वोके स्थानपर अगोंका अधिक प्रचार होना संभव है। श्री मोदीने पूर्वोके लोप पर प्रकाश डालते हुए लिखा है कि अंगोंके अध्ययन ने प्रमुखता लेली क्योंकि उनमें न केवल पूर्वो का सार था, किन्तु वे उनसे सरल भी थे। अस्तु,
आगे हम दृष्टिवाद तथा शेष ग्यारह अगोंके मध्यमें वर्तमान भेदको स्पष्ट करने के लिए श्र त ज्ञानके भेदोंका विवरण देते हैं।
श्वेताम्बर परम्परा में श्रुतके भेद श्वेताम्बर परम्परा में श्रुतज्ञान के चौदह भेद किये हैं- अक्षर श्रुत, अनक्षर श्रुत, संज्ञि श्रुत, असंज्ञि श्रुत, सम्यक श्रुत, मिथ्या
१-अन्तगडा०, प्रस्ता० पृ० १८-१६
२- ‘से किं तं सुयनाण परोक्खं ? सुयनाणपरोक्खं चोद्दसविह पन्नतं, तं जहा—'अक्खर सुयं १ अणक्खर सुयं २ सरिण सुर्य ३ असरिणसुयं ४ सम्मसुग्रं ५ मिच्छसुअं ६ साइनं ७ अणाइबं८ सपजवसिनं ६ अपजवसिय १०, गमित्रं ११ अगमित्रं १२ अंगपविट्ठ अणंग पविट्ठ १४ ॥ ३८ ॥" नन्दी० । “अक्खर सरणी सम्मं साईअं खलु सपजवसियं च । गमियं अंगपविटं सत्त वि एए सपडिवक्खा" ॥ ४५४ ॥-विशे० भा० ।
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