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________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण दिखलाई गई है और उन्हें लाक्षणिक तथा दार्शनिक रूप दिया गया है। जैसाकि पहले लिखा है आरण्यकाका कार्य-यज्ञोंको लाक्षणिक और दार्शनिक रूप दान-उपनिषदों तक चालू रहा है। उदाहरणके लिये वृहदा० उप०को उपस्थित किया जा सकता है। बृहउप०का प्रारम्भ करते हुए विश्वमें यज्ञसम्बन्धी अश्वकी कल्पना की गई है। – 'उषा यज्ञसम्बन्धी अश्वका सिर है, सूर्य नेत्र हैं, वायु प्राण है, अग्नि मुख है, संवत्सर आत्मा है, युलोक पीठ है, आकाश उदर है, पृथ्वी पैर रखनेका स्थान है, दिशाएँ पार्श्वभाग है, अवान्तर दिशाएँ पसलियां हैं, ऋतुएँ अङ्ग हैं, मास और अर्द्ध मास पर्व हैं, दिन और रात्रि पाद हैं, नक्षत्र अस्थियां हैं, आकाशस्थित मेघ मांस हैं, नदियां गुदा हैं, पर्वत यकृत और हृदयगत मांस खण्ड हैं, औषधि और बनस्पतियां रोम हैं, उदय होता हुआ सूर्य नाभिसे ऊपरका भाग और अस्त होता हुआ सूर्य कटिसे नीचेका भाग है। विजलियोंकी चमक जमुहाई है, मेघका गर्जन शरीरका हिलना है, वर्षा मूत्रत्याग है, हिनहिनाना उसकी बाणी है।' अश्वमेध यज्ञके द्वारा पृथ्वीका स्वामित्व प्राप्त हो सकता है किन्तु आत्मिक स्वराज्य तो समस्त विश्वको, जिसकी कल्पना उपनिषदोंमें घोड़ेके रूपमेंकी गई हैत्याग देनेसे ही प्राप्त होता है। इस तरह प्रकाराकारसे अश्वमेध यज्ञको त्यागनेका ही उपदेश दिया गया है। छा० उ० (३, १४-१७ ) में मनुष्यके समस्त जीवनको सोमयज्ञके रूप में स्पष्ट किया गया है और (५, १६-२४ ) में प्राणोंके विभिन्न प्रकाशनोंकी भेटोंको अग्निहोत्रका स्थान दिया है। उपनिषदोंमें जो यज्ञोंको नीचा कर्म बतलाया गया है उसका कारण यही प्रतीत होता है कि यज्ञसे पितृलोककी प्राप्ति हो सकती Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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