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________________ भगवान महावीर २६५ वासिनी देवियाँ ६, भवनवासी देव ७, व्यन्तरदेव ८, ज्योतिष्कदेव, कल्पवासी देव १०. मनुष्य ११ और पशु १२ बैठते हैं। शान्तमूर्ति क्षमाशील तीर्थंकरके प्रभावसे समवसरणमें स्थित विरोधी प्राणी भी परस्परके विरोधको भूल जाते हैं और शान्तिपूर्वक उपदेश श्रवण करते हैं। दिव्यध्वनि और उसकी भाषा तीर्थङ्करों की वाणीको दिव्यध्वनि कहते हैं। दिव्य-ध्वनि अर्थात् अलौकिक आवाज । भगवानके मुखकमलसे निकलनेवाली इस ध्वनिकी दिव्यता यह होती है कि यद्यपि वह ध्वनि एक ही प्रकार की होती है तथापि उसका परिणमन सर्वभाषारूप होता है। समवसरणमें उपस्थित सभी प्राणी उसका अभिप्राय अपनी अपनी भाषामें समझ जाते हैं। इसीसे उसे सर्व भाषारूप कहा गया है। किन्हीं आचार्योंका मत है कि वाणीकी यह विशेषता देवकृत है। जिनसेनाचार्य ने उसे देवकृत नहीं माना बल्कि भगवानकी ही विशेषता माना है। इसी तरह कुछ आचार्योंने तीर्थङ्करकी वाणीको अनक्षरी' माना है किन्तु जिनसेनाचार्य ने उसका निषेध करते हुए अक्षररूप ही माना है। उनका कहना है कि अक्षर समूहके बिना लोकमें अर्थका परिज्ञान नहीं देखा जाता। १. 'एकतयोऽपि च सर्वनृभाषाः सोऽन्तरनेष्ट बहूश्च कुभाषाः। अप्रतिपत्तिमपास्य च तत्वं बोधयतिस्म जिनस्य महिम्ना ॥७०॥ -म० पु०, २३ ५० । २. 'देवकृतो ध्वनिरित्यसदेतद् देवगुणस्य तथा विहतिः स्यात् । साक्षर एव च वर्णसमूहान्नैव विनार्थगतिर्जगति स्यात् ।।७३।। -म० पु० २३ पर्व । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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