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________________ २६४ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका समवसरण महावीर भगवान्की उपदेश सभाको समवसरण कहा जाता था । जैन साहित्यमें तीर्थङ्करोंके 'समवसरणोंका जो वर्णन मिलता है वह अनुपम है। वृहत्सभास्थानकी रचना कैसी की जाती थी यह उससे प्रकट होता है। संक्षेपमें समवसरणकी रचना इस प्रकार होती है-सबसे प्रथस धूलि साल नामक कोटके बाद चारों दिशाओंमें चार मानस्तम्भ होते हैं। इन मानस्तम्भों पर दृष्टि पड़ते ही अहङ्कारी व्यक्तियोंका अहङ्कार चूर-चूर हो जाता है। मानस्तम्भोंके चारों ओर सरोवर होते हैं। फिर निर्मल जलसे भरी हुई परिखा होती है, फिर पुष्प वाटिका होती है। उसके आगे पहला कोट होता है। उसके आगे दोनों ओर दो दो नाटक शालाएँ होती हैं, उनके आगे दूसरा उपवन होता है, उसके आगे वेदिका और फिर ध्वजाओंकी पंक्तियाँ होती हैं। फिर दूसरा कोट होता है। उसके आगे वेदिकासहित कल्पवृक्षोंका वन होता है। उसके बाद स्तूप और स्तूपोंके बाद मकानोंकी पंक्तियाँ होती हैं। फिर तीसरा कोट होता है। उसके भीतर सोलह दीवालोंके बीचमें बारह कोटे होते हैं। इन कोटोंके भीतर पूर्वादि प्रदक्षिणा क्रमसे पृथक-पृथक मनुष्य, देव और मुनिगण बैठते हैं। तदनन्तर पीठिका होती हैं और पीठिकाके ऊपर तीर्थकर विराजमान होते हैं। तीर्थकर पूरब अथवा उत्तर दिशा की ओर मुख करके बैठते हैं। उनके चारों ओर प्रदक्षिणारूप क्रमसे मुनिजन १, कल्पवासिनी देवियाँ २, आर्यिका तथा अन्य स्त्रियाँ ३, ज्योतिषोंको देवियाँ ४, व्यन्तरोंको देवियाँ ५, भवन१. विस्तृत वर्णन के लिये तिलोय पण्णति भा० १, गा० ७१२ ६३३ तथा महापुराण प्र० भाग पृ० ५१४-५३६ देखना चाहिये । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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