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श्रुतावतार
५३५ ग्यारह अंगोंका ज्ञान बना रहा। किन्तु दिगम्वरोंकी तरह काल क्रमसे होनेवाले अंग ज्ञानियोंकी परम्पराका कोई निर्देश श्वेताम्बर परम्परामें नहीं मिलता। हां, भिन्न २ समयोंमें अंगोंका संकलन करनेकेलिये जो तीन वाचनाएँ हुई उनका निर्देश अवश्य मिलता है और उस परसे यही व्यक्त होता है कि श्वेताम्बर परम्परामें अंग ज्ञानका वारसा गुरुशिष्य परम्पराके क्रमसे एक ही व्यक्ति में समाविष्ट नहीं माना जाता था। किन्तु विभिन्न व्यक्तियोंमें विप्रकीर्ण रहता था-फुटकर फुटकर प्रसंग विभिन्न व्यक्ति. योंको ज्ञात रहते थे। इसीसे उन सबको एकत्र करनेके लिये विभिन्न कालोंमें तीन वाचनाएँ की गई। बौद्धों में भी बुद्ध के उपदेशोंको संगृहीत करनेके लिए इसी प्रकार तीन संगीतियाँ हुई थीं।
पहले लिखा गया है कि बौद्धोंके मध्यम मागका प्रभाव जैन साधुओं सुखशील पक्ष पर पड़ा। अतः दोनोंकी वाचनाओंकी समसंख्या देखकर यह सन्देह होना स्वाभाविक है कि जैन वाचनाएँ बौद्ध संगीतियोंकी ही प्रतिकृति तो नहीं हैं। अतः दोनोंको तुलनाके लिए बौद्ध संगीतिका विवेचना किया जाता है।
बौद्ध संगीति और जैन वाचना बौद्ध परम्पराकी तीनों संगी-तियाँ किसी दुर्भिक्षके कारण पिटकधरोंके स्वर्गवास हो जानेके कारण नहीं हुई, जैसा कि श्वेताम्बरीय जैन वाचनाएँ हुई। प्रथम संगीतिका कारण बतलाते हुए लिखा है-"उस समय आवुसो ! सुभद्र वृद्ध प्रव्रजितने कहा-अच्छा आवुसो ! हम धर्म और नियमका संगान ( साथ पाठ ) करें, सामने अधर्म प्रकट होरहा है, धर्म हटाया जा रहा है, अविनय प्रकट होरहा है, विनय हटाया
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